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________________ पंचमोऽध्यायः [ ३०३ च परत्वाऽपरत्वे । ते च क्षेत्रनिमित्त प्रशंसानिमित्त कालनिमित्ते च सम्भवतः । तत्र क्षेत्रनिमित्त तावदाकाशप्रदेशाल्पबहुत्वापेक्षे । एकस्यां दिशि बहूनाकाशप्रदेशानतीत्य स्थितः पदार्थः पर इत्युच्यते । ततोऽल्पानतीत्य स्थितोऽपर इति कथ्यते । प्रशंसाकृते अहिंसादिप्रशस्तगुणयोगात्परो धर्मः । तद्विपरीत लक्षणस्त्वधर्मोऽपर इत्युच्यते । कालहेतुके -शतवर्षः पुमान्परः । षोडशवर्षस्त्वपर इत्याख्यायते । तत्र कालोपकारप्रकरणात् क्षेत्रप्रशंसानपेक्षे परत्वापरत्वे व्यवहारकालकृते इह गृह्यते । यथाह्यपरक्षेत्र स्थितोऽपि निर्गुणोऽपि चाण्डालो बहुतरकालापेक्षयाऽन्यस्मात्पर इत्युच्यते । परक्षेत्रस्थोऽपि च सगुणोऽपि ब्राह्मणबालकोऽल्पकालत्वादेतस्मादपर इति च कथ्यते । त एते वर्तनादय उपकारा यस्यार्थस्य लिङ्ग स काल इत्यनुमीयते । वर्तनाग्रहणमेवास्तु तद्भदत्वात्परिणामादीनां पृथग्ग्रहणमनर्थकमिति परत्व और अपरत्व क्षेत्रनिमित्तक प्रशंसा निमित्तक और काल निमित्तक होते हैं । उनको क्रम से बताते हैं-आकाश प्रदेशों के अल्प और बहुकी अपेक्षा लेकर जो परत्वापरत्व होता है वह क्षेत्र निमित्तक है, एक दिशा में बहुत से आकाश प्रदेशों को लांघकर जो स्थित है उस पदार्थ को 'पर' दूर है ऐसा कहा जाता है। उससे अल्प आकाश प्रदेशों को लांघकर जो स्थित है उस पदार्थ को "अपर" निकट है ऐसा कहते हैं। प्रशंसा निमित्तक परत्व अपरत्व को बताते हैं-अहिंसा आदि प्रशस्त गुणों वाला होने से धर्म “पर” श्रेष्ठ कहलाता है और उससे विपरीत हिंसा आदि अप्रशस्त लक्षण वाला अधर्म "अपर" हीन-प्रशंसा रहित कहलाता है । काल निमित्तक परत्वापरत्व को बताते हैं-सौ वर्ष की आयु वाला वृद्ध पुरुष ‘पर" है और सोलह वर्ष वाला "अपर" है । उनमें काल के उपकार का यहां प्रकरण होने से क्षेत्र और प्रशंसा निमित्तक परत्व अपरत्व नहीं लिया है, यहां तो कालकृत परत्वापरत्व ग्रहण किया है। जैसे कोई अपर क्षेत्र [ निकट ] में स्थित भी है निर्गुण चाण्डाल भी है तो भी बहुत काल जीवित की अपेक्षा से उसको अन्य पुरुष से "पर" बड़ा-बड़ी आयु वाला ऐसा कहते हैं। और कोई पुरुष पर क्षेत्र स्थित भी है तथा गुणवान ब्राह्मण बालक भी है तो भी उसको अल्प वयस्क होने से इससे यह अपर है- इसकी अपेक्षा यह छोटा है कहा जाता है। ये वर्तना परिणाम आदि उपकार जिस पदार्थ का लिंग है वह काल द्रव्य है, इसतरह काल द्रव्य अनुमान द्वारा जाना जाता है। शंका-सूत्र में केवल वर्तना पद लेना चाहिये क्योंकि परिणामादिक सब उसी के भेद हैं, अतः अन्य पदों का ग्रहण व्यर्थ है ?
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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