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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती नार्थम् । तेन जीवानां स्वामिभृत्यादिभावेन वृत्तिः परस्परोपग्रहो वेदितव्यः । तद्यथा-स्वामी तावद्वि तत्यागादिना भृत्यानामुपग्रहे वर्तते । भृत्याश्च हितप्रतिपादनाहितप्रतिषेधेन च स्वामिन उपकारे वर्तन्ते । प्राचार्य उभयलोकफलप्रदोपदेशदर्शनेन तदुपदेशविहितक्रियानुष्ठापनेन च शिष्याणामनुग्रहे वर्तते । शिष्या अपि तदानुकूल्यवृत्त्या प्रवर्तन्ते । यथा धर्मादीनामस्तित्वस्याविर्भावको गत्यादिरुपकार उक्तस्तथा कालस्याप्यस्तित्वसंसूचकं प्रतिनियतमुपकारं दर्शयन्नाह
वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ॥ २२ ।। स्त्रीलिङ्ग कर्मणि भावे वा णिजन्ताढतेयुचि प्रत्यये सति वर्तनेति सिध्यति । वय॑ते वर्तन मात्रं वा वर्तनेति । अथवा वृत्तिरयमनुदात्तानुबन्धस्ततस्ताच्छीलिके युचि वर्तनशीला वर्तनेति भवति ।
उपकार का प्रकरण होने से उपग्रह शब्द की आवश्यकता नहीं थी किन्तु पूर्वोक्त सुखदुःखादि चार का सम्बन्ध करने के लिये उसका ग्रहण हुआ है। उससे जीवों का स्वामी सेवक आदि रूप परस्पर उपग्रह होना सिद्ध होता है । आगे इसीको कहते हैंस्वामी धन का त्याग आदि द्वारा सेवक का उपकार करता है और सेवक हित का प्रतिपादन तथा अहित का निषेध करके स्वामी का उपकार करता है । आचार्य दोनों लोकों में सुखदायी ऐसा उपदेश देकर तथा उस उपदेश में कथित क्रिया के अनुष्ठान कराने द्वारा शिष्यों का अनुग्रह करते हैं । और शिष्य वर्ग आचार्य की अनुकूल वृत्ति द्वारा उपग्रह करते हैं।
धर्मादि द्रव्यों के अस्तित्व का सूचक जैसे गत्यादि उपकार कहा वैसे काल द्रव्यके अस्तित्व का सूचक जो उपकार है उसको सूत्र द्वारा दिखलाते हैं
सूत्रार्थ-वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल द्रव्य के उपकार हैं।
स्त्रीलिंग में कर्म या भाव अर्थ में णिजन्त से युच् प्रत्यय आकर "वर्तना" शब्द निष्पन्न हुआ है । वृत्यते वर्तनमात्रं वा वर्तना। अथवा यह वृत्ति अनुदात्त रूप है उससे शील अर्थ में [ वैसा होने का स्वभाव ] युच् प्रत्यय आकर "वर्तन शीला वर्तना" ऐसा वर्तना शब्द बनता है ।
प्रश्न-वतना किसे कहते हैं ?