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________________ पंचमोऽध्यायः [ २९७ तद्यथा-कंसादीनां भस्मादीनि । जलादीनां कतकफलादीनि । अयःप्रभृतीनामुदकादीनि च नैर्मल्यलक्षण मुपकारं कुर्वन्ति । स्यान्मतं ते-शरीरवाङ मनः प्राणापानाः सुखदु:खजीवितमरणोपग्रहश्च पुद्गलानामित्येकमेव सूत्रं कर्तव्यं लघ्वर्थमिति । तन्न । किं कारणम् ? यथासङ्खयशङ्कानिवृत्त्यर्थत्वात्पृथग्योग करणस्य । एकयोगे हि कृते शरीरवाङ मनःप्राणापानहेतवश्चत्वारः । सुखदुःखजीवितमरणानि च फलानि चत्वारीति तेषां यथासङ्ख्यमनिष्टमाशङ्कयत । तन्निवृत्त्यर्थं पृथक्सूत्रीकरणम् । उत्तरसूत्रे सुखादिसम्बन्धनार्थं चेति । चशब्दश्चक्षुरादिसमुच्चयार्थः । तेन यथा शरीराणि पुद्गलकार्याणि तथा चक्षुरादीन्द्रियाण्यपीत्यवसेयम् । ततः सिद्धमेतत्-शरीरवर्गणादिवज्जीवस्य सुखादिजनकं कर्मापि पौद्गलिकं भवतीति । एवमजीवकृतमुपकारं प्रदर्श्य जीवकृतोपकारप्रदर्शनार्थमाह परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।। २१ ॥ ___ परस्परशब्दः कर्मव्यतिहारविषयः । कर्मव्यतिहारश्च क्रियाव्यतिहार उच्यते । परस्परस्योपग्रहः कार्य परस्परोपग्रहः । उपकारस्य प्रस्तुतत्वात्पुनरुपग्रहवचनं पूर्वोक्तसुखादिचतुष्टयाभिसम्बन्धहै अर्थात् राखादि से कांस्य पात्रादि स्वच्छ हो जाते हैं । कनक द्वारा जल स्वच्छ होता है इत्यादि । तथा लोहा आदि का जलादि द्वारा निर्मलता रूप उपकार होता है। शंका-"शरीर वाङ् मनः प्राणापानाः सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहश्च पुद्गलानाम्" ऐसा एक सूत्र करना चाहिये जिससे लाघव हो ? समाधान-ऐसा नहीं कहना । यथा क्रम की आशंका को दूर करने हेतु पृथक पृथक् सूत्र किये गये हैं। यदि दोनों मिलाकर एक सूत्र करते तो शरीर, वाग् प्राण और अपान ये चार हेतु रूप तथा सुख, दुःख, जीवित और मरण ये चार उनके फल स्वरूप हैं ऐसे अनिष्ट अर्थ की कल्पना संभव थी अतः उसके निरसन हेतु पृथक् सूत्र किये हैं। उत्तर सूत्र में सुखादि का सम्बन्ध करने के लिये भी पृथक् सूत्र किया है। सूत्र में च शब्द चक्षुरादि के समुच्चय करने हेतु है । जैसे शरीर आदि पुद्गल के कार्य हैं वैसे चक्षु आदि इन्द्रियां भी पुद्गल के कार्य हैं ऐसा जानना । इसतरह यह सिद्ध हुआ कि जैसे शरीर वर्गणा आदि पुद्गल रूप हैं वैसे जीव के सुखादि को पैदा करने वाले कर्म भी पुद्गल रूप हैं। अजीवकृत उपकार बतला कर अब जीवकृत उपकार को सूत्र द्वारा कहते हैंसूत्रार्थ-जीवों का परस्पर में उपकार होता है। परस्पर शब्द कर्म व्यतिहार विषयक है। क्रिया व्यतिहार को कर्म व्यतिहार कहते हैं । परस्पर के उपग्रह को अर्थात् कार्य को परस्परोपग्रहः कहते हैं। यद्यपि
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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