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पंचमोऽध्यायः
[२९५ श्लेष्मणा चाभिभवः । न चामूर्तस्य मूर्तिमद्भिः प्रतिघातादयो भवेयुः । तथा प्राणापानौ पुद्गलारब्धौ स्पर्शवत्वाद्घटादिवदित्यनुमानाच्च प्राणापानयोः पौद्गलिकत्वसिद्धिः ।प्राण्यंगत्वादेकवद्भावः प्राप्नोति सरीरादिपदानामिति चेन्न-अङ्गाङ्गिद्वन्द्वे तदभावात् । सांसारिकसुखादिकार्यत्वं च पुद्गलानां प्रतिपादयन्नाह
सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहश्च ॥ २० ॥ द्रव्यादिबाह्यप्रत्ययवशादन्तरङ्गसद्वद्यकर्मोदयाच्चात्मनः प्रीतिरूपः प्रसादः सुखमित्याख्यायते । बाह्यद्रव्यादिकारणवशादन्तरङ्गाऽसद्व द्यकर्मोदयाच्चात्मपरिणामः सङ क्लेशप्रायो दुःखमिति कथ्यते । भवधारणकारणायुराख्यकर्मोदयापादितां भवस्थितिमादधानस्य जीवस्य पूर्वोक्तप्राणापानलक्षणस्य
के द्वारा मुख को ढक देने से [ तथा नाक को ढक देने से ] प्राण और अपान का प्रतिघात होता है और श्लेष्मा-कफ से उसका अभिभव भी देखा जाता है। अमूर्त का मूर्तिक द्वारा प्रतिघातादिक होना संभव नहीं है । अनुमान प्रमाण भी है कि प्राण
और अपान पुद्गल से निष्पन्न हैं, [पक्ष ] क्योंकि वे स्पर्शवान हैं जैसे घटादिक स्पर्शवान् होने से पुद्गल निष्पन्न हैं । इससे भी प्राण अपान पौद्गलिक सिद्ध होते हैं।
__ प्रश्न-शरीर वाङ मनः प्राणापानाः पुद्गलानाम् ।। इस सूत्र में शरीर वाङ मनः प्राणापानाः ॥ जो पद है उसमें शरीरादिक प्राणी के अंग हैं, और अंगवाचक पदों का एकवत् भाव-समाहार द्वन्द्व समास होने से अन्त में एकवचन [ नपुंसकलिंग का ] होगा?
उत्तर-ऐसी बात नहीं है । शरीरादि पद अंग अंगी वाचक होने से एकवत् भाव नहीं होता है।
सांसारिक सुखादिक पुद्गल का कार्य है ऐसा प्रतिपादन करते हैंसूत्रार्थ-सुख, दुःख जीवन और मरण ये भी पुद्गल द्रव्यों के उपकार हैं ।
द्रव्य, क्षेत्र आदि बाह्य कारणों से तथा अन्तरंग में साता वेदनीय कर्म के उदय होने से आत्मा के जो प्रीतिरूप प्रसाद है वह सुख कहलाता है । बाह्य में द्रव्यादि कारण से तथा अंतरंग में असाता कर्म के उदय से आत्मा में जो संक्लेश बहुल परिणाम होता है उसे दुःख कहते हैं । भवधारण का कारण आयु है उस आयु कर्म के उदय से भवस्थिति को धारण करने वाले जीव के पूर्वोक्त प्राणापान लक्षण रूप क्रिया विशेष का