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________________ २८६ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती सन्तु गमनस्थानपरिणामिपदार्थगतिस्थितय इति चेन्न-पुद्गलानामदृष्टाभावात्तासामभावप्रसक्त! । ये यदात्मोपभोग्याः पुद्गलास्तद्गतिस्थितयः सदात्माऽदृष्टनिमित्ता इति चेत्ता साधारणं निमित्तंदृष्ट तासां स्यात्प्रतिनियतात्माऽदृष्टस्य प्रतिनियतद्रव्यगतिस्थितिहेतुत्वसिद्धेः न च सर्वथा तदनिष्ट तासां जलपृथिव्यादेरिव दृष्टगतिस्थितिनिमित्तस्याप्यसाधारणस्यापीष्टत्वात् । साधारणं तु सहकारिकारणं धर्मोऽधर्मश्चैव । तत: प्रमाणसिद्धजीवपुद्गलसाधारणगतिस्थित्यन्यथानुपपत्तेधर्माधर्मयोः प्रसिद्धिरित्यलमतिविस्तरेण । आकाशस्योपकारः कोऽस्तित्वसाधन इत्याह समाधान-यह कथन गलत है, देखिये ! पुद्गल तो अचेतन जड़ पदार्थ है उसके पुण्य पाप रूप अदृष्ट नहीं होता, इसलिये फिर उसकी गति स्थिति ही नहीं हो सकेगी । भाव यह है कि पुण्य पाप जड़ के होते नहीं । आपने गति आदि का कारण पुण्य पाप को माना, अतः जड़ स्वरूप पुद्गलों के गति आदि होने का अभाव हो जायेगा। शंका-जो पूदगल जिस आत्मा के उपभोग्य होते हैं उनकी गति स्थिति उस आत्मा के अदृष्ट के निमित्त से हो जाया करती है ? समाधान-यदि ऐसी बात है तो उन गति और स्थिति का अदृष्ट असाधारण निमित्त हआ? क्योंकि प्रतिनियत [ निश्चित अपने अपने एक एक ] आत्मा के अदृष्ट के निमित्त से प्रतिनियत द्रव्य की गति और स्थिति होती है ऐसा सिद्ध होता है [ अर्थात अदृष्ट को यदि गति स्थिति का असाधारण कारण मान लिया तो वह प्रतिनियत आत्मा में ही रहेगा सर्व साधारण स्वरूप नहीं ] इस तरह की बात हम जैन को सर्वथा अनिष्ट नहीं है, क्योंकि हम जैन ने गति और स्थितियों का असाधारण कारण जल पृथिवी आदि के सदृश भी माना है जो कि प्रत्यक्ष रूप से गति और स्थितियों का निमित्त है । किन्तु बात यहां साधारण सहकारी कारण-निमित्त की है गति और स्थिति का साधारण निमित्त तो धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य ही है । अतः अनुमान प्रमाण से धर्म और अधर्म की सिद्धि होती है-प्रमाण भूत जो जीव और पुद्गल द्रव्य हैं उनके गति और स्थिति का साधारण निमित्त धर्म अधर्म द्रव्य ही है क्योंकि अन्य कोई सर्व साधारण निमित्त उपलब्ध नहीं होता। अब इस विषय से विराम लेते हैं। प्रश्न-आकाश के अस्तित्व को सिद्ध करने वाला कौनसा उपकार है ? उत्तर-इसको सूत्र द्वारा कहते हैं
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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