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________________ पंचमोऽध्यायः [ २८५ कार्यस्य इदमितः पूर्वेणेत्यादिप्रत्ययस्य दिक्कार्यस्य अन्वयज्ञानस्य सामान्यकार्यस्य च इहेदमिति प्रत्ययस्य समवायकार्यस्यापि नभोनिमित्तत्वोपपत्तेस्तस्य सर्वत्र सर्वदा सद्भावात् । अथ कार्यविशेषात्कालादि निमित्तभेदव्यवस्थाऽभ्युपगम्यते तर्हि तत एव धर्मादिनिमित्तभेदव्यवस्थाप्यभ्युपगन्तव्या - सर्वथा विशेषाभावात् । किं च धर्माधर्माऽनभ्युपगमे सर्वत्राकाशे सर्वजीवपुद्गलगतिस्थितिप्रसङ्गाल्लोकालोकव्यवस्था न स्यात् । ततो लोकालोकव्यवस्थाऽन्यथाऽनुपपत्त ेर्धर्माधर्मास्तित्वसिद्धिः । नापि काल हेतुकाः सर्व जीवपुद्गल गतिस्थितयः कालस्य वर्तनादिहेतुत्वेन व्यवस्थितत्वात् । तर्हि पुण्यापुण्याख्यादृष्टनिमित्ता: आत्मा, दिशा आदि द्रव्य एवं पदार्थ माने जाते हैं, उन द्रव्यों की एवं पदार्थ की विभिन्न कार्यों से सिद्धि भी करते हैं । जैसे कि अमुक कार्य युगपत् या क्रम से हुए इत्यादि प्रतीति काल द्रव्य का कार्य है इससे काल द्रव्य की सिद्धि होती है, बुद्धि आदि आत्मा के कार्य हैं । यह यहां से पूर्व में है इत्यादि प्रतीति दिशा नाम के द्रव्य का कार्य है । यह गौ है यह भी गौ है इत्यादि रूप अन्वय ज्ञान सामान्य पदार्थ का कार्य । यह यहां पर है इत्यादि बोध समवाय पदार्थ का कार्य है । ऊपर कहे हुए सर्व ही कार्य एक मात्र आकाश द्रव्य के निमित्त से होते हैं ऐसा आपको मानना चाहिये ? क्योंकि आकाश हमेशा सर्वत्र रहता है । शंका – विशेष कार्य को देखकर काल द्रव्यादि विभिन्न निमित्तों की व्यवस्था स्वीकार करते हैं ? समाधान - तो फिर विशेष कार्य को देखकर धर्म द्रव्यादि विभिन्न निमित्तों की व्यवस्था भी अवश्य स्वीकार करना चाहिये, दोनों पक्ष एवं हेतुओं में कोई विशेषता नहीं है। दूसरी बात यह भी है कि यदि धर्म अधर्म द्रव्य स्वीकार नहीं करते, तो आकाश सर्वत्र होने से सभी जीव एवं पुद्गल सारे आकाश में गति स्थिति करेंगे, और उससे लोक अलोक की व्यवस्था समाप्त हो जायगी । लोक अलोक व्यवस्था की अन्यथानुपपत्ति से ही धर्म अधर्म द्रव्यों का अस्तित्व सिद्ध होता है । कोई कहे कि सर्व जीव पुद्गलों की गति और स्थिति काल के निमित्त से होती है, तो यह मान्यता भी ठीक नहीं है, क्योंकि काल द्रव्य तो वर्त्तना परिणाम आदि का निमित्त है, गति आदि का नहीं । शंका- गमन और स्थान स्वरूप परिणमन करने वाले पदार्थों की गति और स्थिति पुण्य पाप नाम के अदृष्ट द्वारा होती है ?
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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