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तथा धर्म एक एव जीवपुद्गलानां गतिस्थित्योरुपग्रहं कुर्यात्तथाऽधर्मोपीत्ययमर्थो गम्येत । न चैवमन्यतरस्य वैयर्थ्यमिति वक्तव्यं लोकेऽनेकसहायकारणदर्शनात् । तेनैतदुक्तं भवति - जीवपुद्गलानां सकृत्स्वयमेव गतिपरिणामिनामप्र' रकबा ह्यसाधारणोपग्रहका रणत्वेनानुमीयमानो धर्मास्तिकायस्तेषामेव स्वयमेव युगपत् स्थितिपरिणामिनां बाह्यसाधारणोपग्रहाश्रयकारणत्वेनानुमीयमानोऽधर्मास्ति कायः । सर्वगतौ चैतौ सर्वत्र तत्कार्यदर्शनादिति । ननूपग्रहोप्युपकार एवोच्यते । ततस्तदर्थस्योपकार वचनेनैव लब्धत्वादुपग्रहवचनमनर्थकम् । तेन गतिस्थिती धर्माधर्मयोरुपकार इत्यस्तु लघुत्वादिति । सत्यं—यथासङ्ख्यनिवृत्त्यर्थमुपग्रहवचनं क्रियते । अन्यथा जीवानामेव गतिपरिणामोपकारो धर्मस्य स्यान्न तु पुद्गलानाम् । पुद्गलानामेव स्थितिपरिणामोपकारस्यादधर्मस्य न तु जीवानामिति यथा
पंचमोऽध्यायः
अकेली ही अश्वादि के गति और स्थिति स्वरूप उपग्रह करती है, वैसे एक धर्म द्रव्य ही जीव पुद्गलों के गति स्थिति उपग्रह को करे तथा अधर्म द्रव्य भी अकेला ही उक्त उपग्रह को करे ऐसा अनिष्ट अर्थ संभव होगा ।
प्रश्न- - ऐसा अर्थ करने पर तो धर्म और अधर्म में से एक द्रव्य व्यर्थ ठहरेगा ?
उत्तर - व्यर्थ नहीं होगा, क्योंकि लोक में देखा जाता है कि एक कार्य में अनेक सहायक कारण होते हैं । उक्त कथन का भाव यह है कि स्वयं गति क्रिया में परिणत हुए जीव और पुद्गल - दोनों को एक साथ अप्रेरक स्वरूप बाह्य साधारण उपकारक कारणपने से अनुमान से जाना गया धर्मास्तिकाय है और स्वयं एक साथ स्थिति क्रिया में परिणत हुए जीव तथा पुद्गलों के बाह्य में साधारण उपकारक कारणपने से अनुमान से जाना गया अधर्मास्तिकाय है ।
ये दोनों ही सर्वत्र कार्य के देखने से सर्वगत-लोक में व्याप्त हैं ।
शंका-उपग्रह भी उपकार वाचक ही है, अतः उसका अर्थ उपकार शब्द से ही ज्ञात होने से उपग्रह शब्द व्यर्थ है, इसलिये "गति स्थिती धर्माधर्मयोरुपकारः " ऐसा सूत्र होना चाहिये जिससे वह लघु - ( छोटा ) हो जाय ?
समाधान —- ठीक है । किन्तु यथासंख्य अर्थ न लग जाय इसके लिये उपग्रह शब्द का ग्रहण किया है । यदि उपग्रह शब्द नहीं लेते तो धर्म द्रव्य का गति परिणाम स्वरूप उपकार जीवों के ही सिद्ध होता, पुद्गलों के नहीं । तथा अधर्म द्रव्य का स्थिति परिणाम स्वरूप उपकार केवल पुद्गलों के ही संभव होता जीवों के नहीं ।