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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती द्वित्रिचतुरादिष्वप्यसंखय या एव । ततो जीवानामवगाहभेदो न प्राप्नोतीति । तन्न युक्तमसंखय यस्यासंखय यविकल्पत्वात् । अजघन्योत्कृष्टासंखय यस्य हि असंखय याविकल्पा भवन्त्यतोऽवगाहविशेषो जीवानां सिद्धः । धर्माऽधर्मपुद्गलजीवानां कृत्स्नलोकावगाहनियमात् कालद्रव्यस्य लोकाकाशस्यैकस्मि
तवें भाग के भी असंख्य भेद हैं, अतः उपर्युक्त असंख्यातवें भाग में दो तीन चार इत्यादि प्रदेश मिलाने पर भी वह क्षेत्र एवं वह शरीर अवगाहना असंख्येय भाग प्रमाण ही कहलायेगी। निगोद जीव की जघन्य अवगाहना से लेकर एक हजार योजन प्रमाण महामत्स्य की अवगाहना तक मध्य के अवगाहनाओं के असंख्य भेद हो जाते हैं, ये सर्व भेद लोक के असंख्यातवें भाग मात्र को व्याप्त करने वाले हैं। इन अवगाहनाओं के धारक जीव समुद्घात क्रिया को करते हैं । समुद्घात के सात भेद हैं-कषाय समुद्घात, वेदना समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात, वैक्रियिक समुद्घात, तैजस समुद्घात, आहारक समुद्घात और केवली समुद्घात । मूल शरीर को बिना छोड़े आत्मा के प्रदेशों का बाहर निकलना समुद्घात कहलाता है । मारणान्तिक, वैक्रियिक आदि समदघातों में जीव के प्रदेश कई राजू तक फैल जाते हैं। केवली समुद्घात में दण्ड और कपाट रूप अवस्था में लोक के असंख्यातों भाग और प्रतर में संख्यात बहुभाग एवं लोकपूरण अवस्था में सर्व लोक प्रमाण आत्मा के प्रदेश फैल जाते हैं । अतः असंख्यातों भाग, संख्यातों भाग और सर्व लोक तक जीव का अवगाह यहां पर बतलाया गया है । इस विषय का विशद वर्णन सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में प्रथम अध्याय के सत् संख्या-आदि आठवें सूत्र की टीका में अवलोकनीय है।
शंका-किसी एक असंख्येय भाग में प्रदेश असंख्यात होते हैं तथा दो, तीन, चार आदि भागों में भी असंख्यात ही होते हैं, उस कारण से जीवों के अवगाहनाओं में भेद नहीं हो सकता ?
समाधान-यह कथन युक्त नहीं है, असंख्येय के भी असंख्येय भेद-विकल्प होते हैं । अजघन्योत्कृष्ट असंख्यात के असंख्यात विकल्प हैं इसलिये जीवों की अवगाहनाओं में भेद सिद्ध हो जाता है ।
धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, पुद्गल द्रव्य और जीव द्रव्य संपूर्ण लोक में अवगाहित होते हैं ऐसा प्रतिपादन करने से काल द्रव्य लोकाकाश के एक प्रदेश में एक काल द्रव्य