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पंचमोऽध्यायः
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न कस्मिन् प्रदेशे एकस्यैकस्यावगाह इति सामर्थ्यादवगम्यते । अत्र कश्चिदाह - एकैकजीवः सकल लोकव्यापी लोकाकाशसमानपरिमाणप्रदेशत्वाद्धर्माधर्मवदिति कुतस्तस्यासंखघ यभागादिषु वृत्तिर्घटत इति । तन्निराकरणार्थमाह
प्रदेश संहारविसर्पाभ्यां प्रदोषवत् ।। १६ ।।
परमाणुमात्रं क्षेत्रं प्रदेशः । सूक्ष्मशरीरनामकर्मोदयवशादुपात्तं सूक्ष्मशरीरमधितिष्ठतः शुष्क चर्मवत्सङ्कोचनं प्रदेशानां संहारः । बादरशरीरनामकर्मोदयवशादुपात्तं बादरशरीरमधितिष्ठतो जलतैलवत्प्रसारणं विसर्प: । सहारश्च विसर्पश्च संहारविसर्पों । प्रदेशानां संहारविसर्पों प्रदेश संहारविसर्पों । ताभ्यां प्रदेश संहारविसर्पाभ्यामात्मनो लोकस्या संखेयभागावगाहित्वम् । समुद्घातकाले त्वसङ्ख्ययभागावगाहिता सर्वलोकव्यापिता वा न विरुद्धयते प्रदीपवत् । यथा निरावरणव्योमदेशा
रूप या एक कालाणु रूप अवगाह पाता है ऐसा सामर्थ्य से जाना जाता है । अर्थात् काल द्रव्य एक एक प्रदेशी अणुवत् पृथक पृथक् हैं उनकी संख्या असंख्यात है, एक एक कालाणु एक एक आकाश प्रदेश पर अवस्थित है । जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं उतने कालाणु हैं, जो रत्न राशिवत् एक एक प्रदेश में अवगाहित हैं ।
शंका - एक एक जीव सकल लोक व्यापी लोकाकाश के समान प्रमाण वाले प्रदेशों से युक्त हैं, जैसे धर्म अधर्म द्रव्य लोकाकाश बराबर प्रदेश वाले हैं । इसलिये उस जीव का असंख्येय भाग आदि में रहना कैसे संभव है ?
समाधान - अब इसी आशंका का निराकरण करने हेतु सूत्र कहते हैं— सूत्रार्थ - जीव के प्रदेशों में दीपक के प्रकाश की तरह संकोच और विस्तार होता है ।
परमाणु प्रमाण क्षेत्र को प्रदेश कहते हैं । सूक्ष्म शरीर नाम कर्म के उदय से सूक्ष्म शरीर प्राप्त होता है, उस शरीर में रहने वाले जीव के प्रदेशों का सूखे चमड़े की तरह सिकुड़ जाना संहार कहलाता है । बादर शरीर नाम कर्म के उदय के वश से बादर शरीर को प्राप्त कर उसमें रहता हुआ जीव जल में तेल की तरह फैल जाता है इसको "विसर्प" कहते हैं । संहार विसर्व पदों में द्वन्द्व समास करना फिर प्रदेश पद के साथ तत्पुरुष समास करना । प्रदेशों के संहार और विसर्प के कारण जीव लोक के असंख्येय भाग में अवगाह पाते हैं । जीव जब समुद्घात करते हैं उस वक्त वे असंख्येय भाग में अथवा सर्व लोक में अवगाहित होते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं आता, जैसे