SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचमोऽध्यायः [ २७६ न कस्मिन् प्रदेशे एकस्यैकस्यावगाह इति सामर्थ्यादवगम्यते । अत्र कश्चिदाह - एकैकजीवः सकल लोकव्यापी लोकाकाशसमानपरिमाणप्रदेशत्वाद्धर्माधर्मवदिति कुतस्तस्यासंखघ यभागादिषु वृत्तिर्घटत इति । तन्निराकरणार्थमाह प्रदेश संहारविसर्पाभ्यां प्रदोषवत् ।। १६ ।। परमाणुमात्रं क्षेत्रं प्रदेशः । सूक्ष्मशरीरनामकर्मोदयवशादुपात्तं सूक्ष्मशरीरमधितिष्ठतः शुष्क चर्मवत्सङ्कोचनं प्रदेशानां संहारः । बादरशरीरनामकर्मोदयवशादुपात्तं बादरशरीरमधितिष्ठतो जलतैलवत्प्रसारणं विसर्प: । सहारश्च विसर्पश्च संहारविसर्पों । प्रदेशानां संहारविसर्पों प्रदेश संहारविसर्पों । ताभ्यां प्रदेश संहारविसर्पाभ्यामात्मनो लोकस्या संखेयभागावगाहित्वम् । समुद्घातकाले त्वसङ्ख्ययभागावगाहिता सर्वलोकव्यापिता वा न विरुद्धयते प्रदीपवत् । यथा निरावरणव्योमदेशा रूप या एक कालाणु रूप अवगाह पाता है ऐसा सामर्थ्य से जाना जाता है । अर्थात् काल द्रव्य एक एक प्रदेशी अणुवत् पृथक पृथक् हैं उनकी संख्या असंख्यात है, एक एक कालाणु एक एक आकाश प्रदेश पर अवस्थित है । जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं उतने कालाणु हैं, जो रत्न राशिवत् एक एक प्रदेश में अवगाहित हैं । शंका - एक एक जीव सकल लोक व्यापी लोकाकाश के समान प्रमाण वाले प्रदेशों से युक्त हैं, जैसे धर्म अधर्म द्रव्य लोकाकाश बराबर प्रदेश वाले हैं । इसलिये उस जीव का असंख्येय भाग आदि में रहना कैसे संभव है ? समाधान - अब इसी आशंका का निराकरण करने हेतु सूत्र कहते हैं— सूत्रार्थ - जीव के प्रदेशों में दीपक के प्रकाश की तरह संकोच और विस्तार होता है । परमाणु प्रमाण क्षेत्र को प्रदेश कहते हैं । सूक्ष्म शरीर नाम कर्म के उदय से सूक्ष्म शरीर प्राप्त होता है, उस शरीर में रहने वाले जीव के प्रदेशों का सूखे चमड़े की तरह सिकुड़ जाना संहार कहलाता है । बादर शरीर नाम कर्म के उदय के वश से बादर शरीर को प्राप्त कर उसमें रहता हुआ जीव जल में तेल की तरह फैल जाता है इसको "विसर्प" कहते हैं । संहार विसर्व पदों में द्वन्द्व समास करना फिर प्रदेश पद के साथ तत्पुरुष समास करना । प्रदेशों के संहार और विसर्प के कारण जीव लोक के असंख्येय भाग में अवगाह पाते हैं । जीव जब समुद्घात करते हैं उस वक्त वे असंख्येय भाग में अथवा सर्व लोक में अवगाहित होते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं आता, जैसे
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy