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________________ पंचमोऽध्यायः [ २७७ लोकाकाशस्यासंखच यानां भागानामेको भागोऽसंखय यभागः । सोऽसंखये यभाग प्रादिर्येषामसंखये यभागानां तेऽसंखयभागादयस्तेष्वसंखय यभागादिषु । अवयवेन विग्रहः समुदायो वृत्त्यर्थः । तेनैकस्यासंखय य भागस्यापि ग्रहणम् । उक्तलक्षणा जीवाः । भाज्योऽवगाह इति वर्तते । एतेनैवमभि सम्बन्धो व्याख्यायते-लोकस्य प्रदेशा असंखये या भागाः कृताः । तत्रैकस्मिन्न गुलाऽसंखच यभागमात्रे लोकाकाशस्यासंखययभागे सर्वजघन्यशरीरभाजो जीवस्यावगाहो भवति । कस्यचिज्जीवस्यकद्वित्रि चतुरादिप्रदेशाधिके अंगुनासंबध यभागमात्रेऽवगाहः । एवं द्वित्रिचतुरादिसंखय येष्वप्यसंखये यभागेष्वा सर्वलोकात्समुद्घातकालेऽवगाहो वेदितव्यः। स्यान्मतं ते–कस्मिन्नप्यसंखय यभागे प्रदेशा असंखच याः । लोकाकाश के असंख्यात भागों में से एक भाग असंख्येय भाग कहलाता है । असंख्येय भाग है आदि में जिनके वे असंख्येय भागादि कहे जाते हैं उनमें, इसप्रकार "असंख्येय भागादिषु" पद का समास करने से "अवयवेन विग्रहः समुदायो वृत्यर्थः" इस व्याकरण सूत्र के अनुसार एक असंख्येय भाग का भी ग्रहण हो जाता है, अर्थात् लोक के असंख्येय भागों में से एक भाग में भी जीव का अवस्थान है ऐसा अर्थ होता है। जीवों का लक्षण कह आये हैं । भाज्यः और अवगाहः पद का प्रकरण चल रहा है, इन पदों का संबंध करके ऐसा व्याख्यान किया जाता है कि-लोक के जो प्रदेश हैं उनके असंख्यात भाग किये, उन भागों में से एक भाग लिया जो अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र है, उस लोकाकाश के असंख्यातवें भाग में सर्व जघन्य शरीर का धारक जीव रहता है, अथवा उतने भाग में उस जीव का अवगाह है। उस असंख्यातवें भाग में एक प्रदेश अधिक रूप क्षेत्र में कोई जीव अवगाह पाता है कोई उक्त भाग में दो प्रदेश अधिक रूप क्षेत्र में रहता है । इसप्रकार उक्त अंगुल के असंख्यातवें भाग में तीन प्रदेश अधिक, चार प्रदेश अधिक इत्यादि रूप भिन्न भिन्न जीवों का भिन्न भिन्न अवगाह जानना चाहिये । समुद्घात काल में तो उक्त असंख्यातवें भाग में दो संख्यातवें भाग अधिक, तीन संख्यातवें भाग अधिक, चार संख्यातवें भाग अधिक इत्यादि रूप से लेकर सर्व लोक पर्यन्त जीव का अवगाह होता है। विशेषार्थ-संसारी जीव शरीर धारी हैं, शरीर की अवगाहना बहुत प्रकार की है, सबसे छोटी अवगाहना सूक्ष्म निगोद जीव की है जो अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है, इसका धारक निगोद जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है, लोक के असंख्या
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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