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________________ २७६ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती नर्हत्वादग्नितृणादीनां दहनदाह्यत्वादिशक्तिवत् । मूर्तिमत्वेप्यवगाहन स्वभावत्वादेकस्मिन्नपि प्रदेशे बहूना मवस्थानं न विरोधाय कल्पते । सर्वज्ञवीतरागाप्तप्रणीतागमप्रामाण्याच्चोक्तोऽवगाहो वेदितव्यः । सूक्ष्मनिगोतावस्थानवत् यथा एकनिगोतजीवशरीरेऽनन्ता निगोतजीवास्तिष्ठन्ति साधारणाहारप्राणापानजीवितमररणत्वात्साधारणा इत्यन्वर्थसंज्ञा इत्येतदागमप्रामाण्यादवसीयते तथावगाहोप्य वसेयः । तथा चोक्तं - गाढगाढणिचिदो पोग्गलकाए हि सव्वदो लोप्रो । सुमे हि बादरे हि प्रणन्तारणन्ते हि विविहे हि ॥ इत्येवमादीति । अथ जीवानामवगाहः कथमित्यत श्राह - असंखच भागादिषु जीवानाम् ।। १५ ।। दूसरी बात यह है कि प्रतिनियत वस्तुओं का अपना स्वभाव हुआ करता है उसमें तर्कणा नहीं होती । अग्नि और तृणादि में दहन दाह्य आदि रूप जैसे स्वभाव या शक्ति प्रतिनियत होती है, उसमें यह प्रश्न संभव नहीं है कि अग्नि में दहन - जलाने का स्वभाव क्यों है तृणादिक ही क्यों जल जाते हैं ? इत्यादि । यह तो वस्तुस्थिति है इसमें विरोध की बात ही नहीं है । ठीक इसीप्रकार पुद्गल मूर्तिमान हैं तो भी अवगाहन स्वभाव वाले होने से बहुत से पुद्गलों का एक प्रदेश में भी अवस्थान हो जाता है, कोई विरोध नहीं है । तथा सर्वज्ञ वीतराग भगवान द्वारा प्रणीत आगम में इस अवगाह शक्ति का कथन पाया जाता है, सर्वज्ञ की प्रमाणता से आगम प्रमाण भूत है और आगम प्रमाण भूत होने से उसमें कथित यह अवगाह शक्ति आदि भी प्रामाणिक है ऐसा समझना चाहिये । जैसे कि सूक्ष्म निगोत जीवों का एकत्र अवस्थान होता है, अर्थात् एक निगोत शरीर में अनन्त निगोत जीव रहते हैं, एक साथ आहार और श्वासोच्छ - वास लेते हैं तथा एक साथ ही जन्ममरण करते हैं इसतरह ये सब साधारण होने से इन जीवों का "साधारण" यह सार्थक नाम है । यह निगोत विषयक वर्णन भी आगम की प्रमाणता से ही जाना-माना जाता है वैसे ही अवगाह शक्ति को भी आगम प्रमाण से जानना मानना चाहिये । आगम में कहा भी है [ पंचास्तिकाय में ] यह लोकाकाश विविध प्रकार के सूक्ष्म तथा बादर स्वरूप अनंतानंत पुद्गलों से अवगाढ गाढ रूपसे सब तरफ भरा हुआ है || १ || इसप्रकार आगम वाक्य है । जीवों का अवगाह किसप्रकार है ऐसा प्रश्न होने पर सूत्र कहते हैंसूत्रार्थ—लोक के असंख्यातवें भाग आदि में जीवों का अवगाह है ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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