SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचमोऽध्यायः [ २७५ द्धयोरबद्धयोश्चैकस्मिन् द्वयोश्चाकाशप्रदेशयोरवगाहः । त्रयाणां परमाणूनां बद्धानामबद्धानां चैकत्रो भयत्र त्रिषु चाकाशप्रदेशेष्ववगाहः। एवं संखय यासंखये यानन्तानां परमाणूनां स्कन्धानां चैकसंखघयासंखय यप्रदेशेषु लोकाकाशेऽवस्थानं प्रत्येतव्यम् । स्यान्मतं ते-मूर्तिमदनेकपुद्गलानामेकप्रदेशेऽव स्थानं विरुध्यते प्रदेशस्य विभागवत्वप्रसंगादवगाहिनामेकत्वप्रसक्त श्चेति । तन्न युक्तम् । कुत: ? उक्तत्वात् । उक्त पत्र प्रचयविशेषादिभिर्हेतुभिरेकत्रावस्थानं भवतीति । एकापवरकेऽनेकप्रकाशाव स्थानदर्शनान्न विरोधः सिध्यति । यथैकस्मिन्नपवरके बहवः प्रकाशा वर्तन्ते । न चापवरकक्षेत्रस्य विभागो नाप्येकक्षेत्रावगाहित्वात्तेषां प्रकाशानामेकत्वमुपलभ्यते । तथैकस्मिन्प्रदेशेऽनन्तानामपि स्कन्धानां सूक्ष्मपरिणामादसङ्करेण व्यवस्थानं न विरुध्यते । किं च प्रतिनियतद्रव्यस्वभावानां प्रेरणा अवगाह है। दो बद्ध परमाणुओं का अथवा दो अबद्ध परमाणुओं का आकाश के एक प्रदेश में अथवा दो प्रदेश में अवगाह हो जाता है। तीन बद्ध परमाणुओं के अथवा तीन अबद्ध परमाणुओं का आकाश के एक प्रदेश में, दो प्रदेश में या तीन प्रदेशों में अवगाह होता है। इसीप्रकार संख्यात असंख्यात और अनंत परमाणुओं का तथा संख्यात, असंख्यात और अनंत स्कन्धों का लोकाकाश के एक प्रदेश में, संख्यात प्रदेशों में या असंख्यात प्रदेशों में अवगाह होता है ऐसा निश्चय करना चाहिये। शंका-मत्तिक अनेक पुद्गलों का आकाश के एक प्रदेश में रहना जो आपने बताया वह विरुद्ध है, यदि ऐसा मानेंगे तो आकाश के एक प्रदेश में विभाग मानना पड़ेगा, अथवा एक प्रदेश पर स्थित होने से अवगाह लेने वाले जो बहु परमाणु स्वरूप पुद्गल हैं उनमें एकत्व आयेगा? समाधान- यह कथन ठीक नहीं है, इसका समाधान तो पहले दे चुके हैं। अभी अभी [ दसवें सूत्र के अर्थ में ] कह दिया था कि प्रचय विशेष आदि के कारण अनंतादि पुद्गलों का एकत्र अवस्थान होता है। जैसे एक ही कमरे में बहुत से प्रकाश रह जाते हैं। वहां पर कमरे के क्षेत्र का विभाग नहीं होता और एक क्षेत्र में रहने के कारण उन प्रकाशों में भी एकपना नहीं होता अर्थात् एक क्षेत्र है तो एक क्षेत्र रूप ही रहता है बहुत प्रकाशों के कारण क्षेत्र अनेक नहीं होते, न उस में विभाग ही होता है, प्रकाशशील पदार्थ भी क्षेत्र एकता के कारण एक रूप नहीं बनते । ऐसे ही आकाश के एक प्रदेश में अनन्त पुद्गल स्कन्धों का सूक्ष्म परिणमन हो जाने के कारण बिना संकरता के अवस्थान हो जाता है इसमें विरोध नहीं आता ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy