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________________ २७० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती वोक्तत्वात् । स्यान्मतं ते- सर्वज्ञेनानन्तं परिच्छिन्न वा स्यादपरिच्छिन्न वा ? । यदि परिच्छिन्न तह्य पलब्धावसानत्वादनन्तत्वमस्य हीयते । अथाऽपरिच्छिन्न तर्हि तत्स्वरूपानवबोधात्सर्वज्ञत्वं न स्यादिति । तन्न । किं कारणम् ? अतिशयज्ञानदृष्टत्वात् । यत् क्षायिकमतिशयवदनन्तानन्तपरिमाणं च केवलिनां ज्ञानं तेन तदनन्तमवबुध्यते साक्षात् । तदुपदेशात्पुनरितरैरस्पष्टज्ञानेनेति न सर्वज्ञत्वहानिः । न च तेन परिच्छिन्न मिति कृत्वा सान्तं तदिति वक्तव्यं-स्वयमनन्तेनानन्तमिति ज्ञातत्वात् । इदानीं पुद्गलानां प्रदेशपरिमाणावधारणार्थमाह सङ्घय यासंखये याश्च पुद्गलानाम् ॥ १० ॥ सङ्घय याश्चाऽसङ्खय याश्च सङ्खय याऽसङ्ख्यया । चशब्दः प्रकृतानन्तसामान्यसमुच्चयार्थ स्तेन परीतानन्तं युक्तानन्तमनन्तानन्तमिति त्रिविधमप्यनन्तमनन्तसामान्येऽन्तर्भूतं गृह्यते। परमाणु शंका-आप जैन द्वारा मान्य जो सर्वज्ञ है उसने अनंत को जाना है कि नहीं जाना ? यदि जाना है तो अनंत का अवसान उपलब्ध होने से उसे अनंतपना नहीं रहता, और यदि सर्वज्ञ ने अनंत को नहीं जाना है तो अनंत के स्वरूप को नहीं जानने से सर्वज्ञत्व समाप्त होता है ? . समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है, अनन्त तो अतिशय ज्ञान द्वारा देखा गया है। केवलियों का ज्ञान क्षायिक होता है तथा सातिशय, अनन्तानन्त प्रमाण स्वरूप होता है, उस अनन्त स्वरूप ज्ञान द्वारा अनन्त प्रत्यक्ष रूप जाना जाता है । उन सर्वज्ञ भगवान के उपदेश से अन्य अन्य पुरुषों द्वारा परोक्ष ज्ञान से अनन्त जाना जाता है, इसप्रकार सर्वज्ञत्व में कुछ भी हानि नहीं आती। सर्वज्ञ ने अनन्त को जाना है अतः वह सान्त हो गया ऐसा कोई कहे तो वह ठीक नहीं है, सर्वज्ञ तो अनन्त को अनन्त रूप से जानते हैं । अतः कोई दोष नहीं है । अब पुद्गलों के प्रदेशों का प्रमाण बतलाने के लिये सूत्र कहते हैंसूत्रार्थ-पुद्गलों के संख्येय, असंख्येय और अनन्त प्रदेश होते हैं । संख्येयादि पदों में द्वन्द्व समास है। च शब्द प्रकृत के अनन्त सामान्य का समुच्चय करने के लिये दिया है । उससे परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त ऐसे तीन प्रकार के अनन्त को अनन्त सामान्य में अन्तर्भूत करके ग्रहण किया है। परमाणु और स्कन्ध की अपेक्षा पुद्गलों के अनन्तप्रकार हैं ऐसा आगे कहेंगे । उससे किन्हीं द्वयणक आदि के संख्यात प्रदेश होते हैं किन्हीं के असंख्यात प्रदेश होते हैं, किन्हीं के अनन्त प्रदेश और किन्हीं के अनन्तानन्त प्रदेश होते हैं, ऐसा निश्चय होता है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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