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________________ पंचमोऽध्यायः [२७१ स्कन्धभेदेन पुद्गलानामनन्तप्रकारत्वेन वक्ष्यमाणत्वात् । ततः केषाञ्चित् द्वयणुकादीनां सङ्खये याः प्रदेशाः । केषाञ्चिदसङ्ख्ययाः । परेषामनन्ता। केषाञ्चित्वनन्तानन्ता इति कथ्यन्ते । अथ मतमेतत्असङ्ख्यातप्रदेशो लोकोऽनन्तानामनन्तानंतानां च पुद्गलानामधिकरणमिति विरोधस्ततो नानन्तमिति । तन्न । किं कारणम् । सूक्ष्मपरिणामावगाहनसामर्थ्यात् । परमाण्वादयो हि पुद्गलाः सूक्ष्मभावेन परिणता एकैकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशेऽनन्तानन्ता अवतिष्ठन्ते । अवगाहनसामर्थ्यमप्येषामव्याहतमस्ति येनैकैकस्मिन्नपि प्रदेशेऽनन्तानन्तानामवस्थानं न विरुध्यते । किञ्च नायमेकान्तोऽस्ति-अल्पेऽधिकरणे महद्रव्यं नावतिष्ठत इति । कुतः ? संघातविशेषेण बहूनामपि पुद्गलानामल्पेऽपि क्षेत्रेऽवस्थानदर्शनात् सहृतविसर्पितचम्पकादिगन्धादिवत्यथाल्पे कुड्मलावस्थे चम्पकपुष्पे सूक्ष्मप्रचयपरिणामात् संहृताश्चम्पकपुष्पगन्धावयवास्तव्यापिनो बहवोऽवतिष्ठमाना दृष्टाः । तस्मिन्नेव विकसिते तु स्थूलप्रचयपरिणामाद्विनिर्गताश्चम्पकगन्धावयवाः सर्वदिङ मण्डलव्यापिनो दृष्टाः । यथा वाल्पे करीषपटले दारुपिण्डे च प्रचयविशेषावगाढाः सन्तः पुद्गला अग्निना दह्यमानाः प्रचयविशेषेण धूमभावेन दिङ मण्डलव्यापि शंका-लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है वह अनन्त और अनन्तानन्त पुद्गलों का आधार है ऐसा कहना विरुद्ध पड़ता है, अतः पुद्गलों के अनंत प्रदेश नहीं मानने चाहिये? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये । पुद्गलों में सूक्ष्म परिणमन और अवगाहन की सामर्थ्य पायी जाती है अतः वे असंख्येय प्रदेशी लोक में अनंत भी समा जाते हैं। देखिये ! परमाणु आदि रूप जो पुद्गल हैं वे सूक्ष्म भाव से परिणत होकर एक एक आकाश प्रदेश पर भी अनन्तानन्त रह जाते हैं। तथा इन पुद्गलों में अवगाहना सामर्थ्य भी निधि रूप से रहती है जिससे कि एक एक प्रदेश में भी इन अनन्तानन्ता का अवस्थान विरुद्ध नहीं पड़ता। दूसरी बात यह है कि, यह एकान्त नहीं है कि छोटे आधार पर बड़ा द्रव्य न रहता हो, क्योंकि सघन संघात के कारण बहुत सारे पुद्गलों का छोटे से क्षेत्र में भी अवस्थान देखा जाता है । जैसे चम्पक पुष्प आदि पदार्थों में सुगंधादिक संकोच विस्तार करके रहते हैं । इसीको बताते हैं कि जब चंपा का फूल कली अवस्था में है तब उसके सुगंधि के अवयव सूक्ष्म प्रचय रूप परिणमन कर सकोच रूप उस कली मात्र में व्याप्त होकर रह जाते हैं और जब वही कली खिल जाती है तब वे चंपा के सुगंधि अवयव स्थूल परिणाम से निकल कर सर्व दिशा मंडल को व्याप्त कर देते हैं । तथा जैसे छोटे से कंडे में और लकड़ी में प्रचय विशेष से अवगाढ रूप ठहरे हुए पुद्गल अग्नि द्वारा जलने पर प्रचय विशेष धूम द्वारा दिशा
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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