________________
पंचमोऽध्यायः
[ २६९
युज्यते सामान्यविशेषापेक्षया पुरुषवदेकानेकप्रदेशत्वं प्रत्यनेकान्ताच्च । नानाजीवापेक्षयानन्तप्रदेशत्वमप्यस्तीत्येकग्रहणमिह क्रियते । एकश्चासौ जीवश्चैकजीवः । धर्मश्चाधर्मश्चैकजीवश्च धर्माधर्मकजीवाः । असङ्ख्य यप्रदेशा धर्माधर्मकजीवा इति लघुनिर्देशन सिद्ध प्रदेशा इति भेदकरणमुत्तरार्थम् । द्रव्यप्रधाने हि निर्देशे सति प्रदेशानां गौणत्वादुत्तरत्राभिसम्बन्धो न स्यात् । अथाकाशस्य कति प्रदेशा इत्यत आह
आकाशस्याऽनन्ताः ॥६॥ अन्तोऽवसानमित्यर्थः । न विद्यतेऽन्तो येषां तेऽनन्ता इत्यन्यपदार्थवृत्त्या प्रत्यासन्नाः प्रदेशा गृह्यन्ते । ते चाकाशस्य वेदितव्याः। न चासङ्ख्य यानन्तयोरविशेष इति वक्तव्यम्-तयोर्भेदस्य प्रागे
पिता पुत्र आदि रिस्तों की अपेक्षा अनेक है, वैसे आकाशादिक द्रव्य की अपेक्षा एक प्रदेश रूप है क्योंकि इनमें विभाग नहीं होता, तथा व्याप्त होकर रहने से एवं अनेकों को भिन्न भिन्न रूप अवगाह आदि देने की अपेक्षा अनेक प्रदेश रूप है। इनमें अनेकान्त है।
नाना जीवों की अपेक्षा अनंत प्रदेशपना भी पाया जाता है अर्थात् जीव राशि अनंत हैं एक एक के असंख्यात प्रदेश हैं अतः सब अनंत हो जाते हैं । उनका ग्रहण न होवे इसलिये सूत्र में एक शब्द को लिया है। एकश्चासौ जीवश्च ऐसा कर्मधारय समास करके पुनः धर्म अधर्म पदों के साथ इसका द्वन्द्व समास करना । “असंख्येयप्रदेशा धर्माधर्मैक जीवाः" इसप्रकार लघु निर्देश कर सकते हैं किन्तु "असंख्येयाः" पद से “प्रदेशाः" पद को जो पृथक् रखा है वह आगे के सूत्र के साथ संबंध करने के लिये रखा है। यदि "असंख्येयप्रदेशाः" ऐसा द्रव्य प्रधान निर्देश करते तो प्रदेश पद गौण हो जाता और उससे फिर प्रदेश शब्द का आगे के सूत्र के साथ सम्बन्ध नहीं जुड़ता।
प्रश्न-आकाश के कितने प्रदेश हैं ? उत्तर-अब इसी को सूत्र द्वारा कहते हैं ।
सूत्रार्थ-आकाश के अनंत प्रदेश होते हैं । अवसान को अन्त कहते हैं । जिनका अन्त नहीं होता वे अनन्त कहलाते हैं, इसतरह अन्यपद प्रधान-बहुब्रीहि समास करने से निकटवर्ती प्रदेश ग्रहण किये जाते हैं । वे अनंत प्रदेश आकाश के होते हैं ऐसा जानना चाहिये । असंख्येय और अनंत में समानता है ऐसा नहीं कहना, इनमें जो भेद है वह पहले कह आये हैं।