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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
रस्याधश्चित्रवज्रपटलयोर्मध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशा व्यवतिष्ठन्ते । इतरे प्रदेशा ऊर्ध्वमधस्तिर्यग्लोकं कृत्स्नं लोकाकाशं व्याप्नुवन्ति । स्यान्मतं ते एकद्रव्यस्य या प्रदेशकल्पना सा न पारमार्थिकीति । तन्न । किं कारणम् ? मुख्यक्षेत्रविभागसद्भावात् । श्रन्यो हि घटावगाह्याकाशप्रदेश इतरावगाह्यश्चान्य इति यद्यन्यत्वं न स्यात्तदा काण्डपटवद्युगपन्नाना देशद्रव्यव्यापित्वं नोपपद्यते । प्रथमतमेतत्-यदि मुख्य एव विभागोभ्युपगम्यते तर्हि निरवयवत्वं नोपपद्यत इति । तन्न । किं कारणम् ? द्रव्यविभागाभावात् यथा घटो द्रव्यतो विभागवान्सावयवो न च तथैषां द्रव्यविभागोऽस्तीति निरवयवत्वं
और वज्रा भूमि पटल के मध्य में जीव के मध्य के आठ प्रदेश स्थित हो जाते हैं और अन्य सभी प्रदेश ऊपर नीचे तिरछे सब ओर मध्यलोक तथा संपूर्ण लोकाकाश को व्याप्त करते हैं ।
शंका- आप जैन के मत में एक द्रव्य में जो प्रदेश कल्पना की है वह पारमार्थिक नहीं है | अभिप्राय यह है कि यदि अनेक द्रव्यों के अनेक प्रदेश मानें तो ठीक है किन्तु एक ही द्रव्य प्रदेशों की कल्पना ठीक नहीं है ?
समाधान - यह कथन अयुक्त है, क्योंकि मुख्य रूप क्षेत्र का विभाग देखा जाता है | देखिये ! घट द्वारा अवगाहित आकाश प्रदेश भिन्न है और पटादि अन्य वस्तु द्वारा अवगाहित आकाश प्रदेश भिन्न है । यदि इस तरह आकाश प्रदेशों में अन्यत्व नहीं होवे तो वस्त्र के समान एक साथ नाना देशों में स्थित पदार्थों में आकाश का व्यापकपना नहीं बनता ।
शंका- यदि आकाशादि में प्रदेश विभाग मुख्य रूप माना जायगा तो उनमें निरवयवपना सिद्ध नहीं होता ?
समाधान- - ऐसा नहीं कहना, क्योंकि द्रव्य का विभाग नहीं होता प्रदेशों का विभाग है । अर्थात् आकाश द्रव्य या धर्म द्रव्य द्रश्य तो एक ही है, उस एक एक द्रध्य में प्रदेश नाना हैं, किन्तु प्रदेश विभाग होने से द्रव्य का विभाग - हिस्सा टुकड़ा हो जाय ऐसा इनमें नहीं होता । बात ऐसी है कि जैसे घट पदार्थ द्रव्य से विभागवान है सावयव है वैसे आकाशादि में द्रव्य से विभाग नहीं पाया जाता इसलिये ये अवयव रहित माने जाते हैं । दूसरी बात यह है कि सामान्य और विशेष की अपेक्षा इन आकाशादि में एक प्रदेशपना और अनेक प्रदेशपने के प्रति अनेकान्त है अर्थात् कथंचित् एक प्रदेशत्व और कथंचित् अनेक प्रदेशत्व है । जैसे पुरुष एक अपने जीव की अपेक्षा एक है और