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________________ पंचमोऽध्यायः [२६७ सङ्ख्यानं सङ्ख्यागणनेत्यर्थः । तामतिक्रान्ता ये तेऽसङ्घय याः। न केनचित्सङ्ख्यातु शक्यन्त इति यावत् । तहि तदनुपलब्धेरसर्वज्ञत्वं प्राप्तमिति चेन्न । किं कारणम् ? तेन स्वरूपेणोपलम्भसम्भवात् । यथाऽनन्तमनन्तात्मनोपलंभमानस्य न सर्वज्ञत्वं हीयते तथाऽसङ्घय यमप्यसङ्खये यात्मनाऽवबुध्य मानस्य न सर्वज्ञत्वहानिरस्ति सर्वज्ञस्य यथास्थितार्थवेदित्वादिति । अजघन्योत्कृष्टमत्रासङ्ख्ययं प्रमाणं गृह्यते । परमाणुस्थानपरिच्छेदात्प्रदिश्यन्ते प्रतिपाद्यन्त इति प्रदेशाः । वक्ष्यमाणलक्षणो द्रव्यपरमाणु विति क्षेत्रेऽवतिष्ठते स प्रदेश इति व्यवह्रियते । धर्माधर्मैकजीवास्तुल्याऽसङ्खय यप्रदेशा वेदितव्याः । तत्र धर्माधौं निष्क्रियौ लोकाकाशमसङ्घय यप्रदेशमभिव्याप्य स्थितौ । जीवस्तावत्प्रदेशोऽपि संहरण विसर्पणस्वभावत्वात्कर्मनिर्वतितशरोरमणुमहद्वाऽधितिष्ठस्तावदवगाह्यवर्तते । लोकपूरणकाले तु मन्द संख्या के गणना को संख्यान कहते हैं, उस संख्या से जो अतिक्रान्त हैं वे असंख्येय हैं, किसी के द्वारा संख्या नहीं कर सकना सो असंख्येय यह अर्थ है । शंका-जिसकी गणना नहीं कर सकते वह असंख्येय है ऐसा माने तो उस असंख्येय का अभाव ही हो जायगा, क्योंकि जो जाना नहीं जाता वह पदार्थ ही नहीं है, अथवा उक्त असंख्येय विद्यमान है और उसको जाना नहीं जाय तो सर्वज्ञपना सिद्ध नहीं होगा; क्योंकि सबको जाने वह सर्वज्ञ है अब यदि उसने असंख्येय को नहीं जाना है तो वह असर्वज्ञ कहलायेगा ? ___समाधान-यह कथन अयुक्त है । असंख्येय अपने स्वरूप से उपलब्ध होता ही है, जैसे अनंत अनंतरूप से उपलब्ध होता है, अतः सर्वज्ञत्व में बाधा नहीं आती। उसीप्रकार असंख्येय भी असंख्येय रूप से उपलब्ध होता है अतः सर्वज्ञत्व में बाधा नहीं आती । सर्वज्ञ देव तो जो पदार्थ जैसा अवस्थित है उसको उस रूप से जानते हैं । यहां पर असंख्येय शब्द से अजघन्योत्कृष्ट असंख्येय प्रमाण ग्रहण किया है । एक परमाणु द्वारा जितना आकाश स्थान रोका जाता है वह एक प्रदेश है, इस नाप से जो नापे जाते हैं वे प्रदेश कहलाते हैं । पुद्गल द्रव्य के परमाणु का लक्षण आगे कहने वाले हैं, उक्त परमाणु जितने क्षेत्र में रहता है वह प्रदेश है । धर्म अधर्म और एक जीव के समान रूप असंख्येय प्रदेश जानने चाहिये। उनमें धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य असंख्येय प्रदेश प्रमाण संपूर्ण लोकाकाश को व्याप्त करके अवस्थित हैं। जीव भी उतने असंख्येय प्रदेश वाला है किन्तु इसमें प्रदेशों के संकोच विस्तार का स्वभाव पाया जाता है अतः अपने अपने कर्म द्वारा रचित जो छोटा बड़ा शरीर है, उसमें ठहरता हुआ शरीर में ही अवगाह कर रहता है। लोकपूरण काल में तो सुमेरुपर्वत के नीचे चित्रा
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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