________________
२६४ ]
सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती तदप्यसत्-बलाधानमात्रत्वादिन्द्रियवत् । यथा द्रष्टुमिच्छोरात्मनो रूपोपलब्धौ चक्षुरिन्द्रियं बलमात्रमादधाति न तु तथा चक्षुषो रूपोपलम्भनसामर्थ्यमस्ति–इन्द्रियान्तरोपयुक्तस्यात्मनस्तदभावात् । यथा चायुषः संक्षयादात्मनि शरीरान्निष्क्रान्तेपीन्द्रियं रूपाद्युपलब्धौ समर्थं न भवति । ततो ज्ञायते आत्मन एवैतत्सामर्थ्य मिन्द्रियाणां तु बलाधानमात्रहेतुत्वमिति । तथा स्वयमेव गतिस्थित्यवगाहनपर्यायपरिणामिनां जीवपुद्गलानां धर्माधर्माकाशद्रव्याणि गत्यादिनिर्वृत्तौबलाधानमात्रत्वेन विवक्षितानि न तु स्वयं क्रियापरिणामीनीति । तदेतद्रव्यशक्तिस्वाभाव्यादवसीयते । कालोऽपि निष्क्रियोऽस्ति । स च वक्ष्यमाणत्वान्न हाभिसम्बध्यते । चशब्दस्याभिहितानन्तरैकद्रव्यनिष्क्रियत्वनियमार्थत्वात् । अतो धर्मा धर्माकाशानां निष्क्रियत्वनियमाज्जीवपुद्गलानां स्वतः परतश्च क्रियापरिणामित्वं सिद्धम् । अथ जीवोऽपि सर्वगतत्वानिष्क्रिय इति चेन्न-तस्य कायप्रमाणत्वात्सर्वगतत्वाऽसिद्ध: । तथा हि-काय
समाधान-यह कथन असत् है-ये धर्मादि बलाधान मात्र हैं इन्द्रिय के समान । इसी को बताते हैं जैसे देखने की इच्छा वाले आत्मा के रूप की उपलब्धि में चक्षु इन्द्रिय बलाधान मात्र होती है । अर्थात् रूप देखने की सामर्थ्य आत्मा में होती है उसमें चक्षु केवल सहायमात्र है, चक्षु में रूप देखने की वैसी सामर्थ्य नहीं होती, क्योंकि जब आत्मा कर्ण आदि अन्य इन्द्रिय में उपयुक्त होता है तब रूप की उपलब्धि नहीं हो पाती । दूसरी बात यह है कि जब आयु का नाश हो जाने से आत्मा शरीर से निकल जाता है तब चक्षु आदि इन्द्रियां रूपादि के अवलोकन में समर्थ नहीं होती उससे ज्ञात होता है कि रूपादि के अवलोकनादि की सामर्थ्य आत्मा में ही है, इन्द्रियां तो सहाय मात्र हैं । उसीप्रकार स्वयं ही गति स्थिति और अवगाह रूप पर्याय में परिणत हुए जीव पुद्गलों के धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य गति आदि के होने में सहाय मात्र है, यही यहाँ विवक्षा है । ये धर्मादिक स्वयं क्रिया परिणत नहीं होते हैं । यह सर्व द्रव्यों की शक्ति का स्वभाव ही ऐसा होने से निर्णीत होता है। अर्थात् धर्मादिक में केवल गति आदि क्रिया के लिये बलाधान होने मात्र की शक्ति है और जीवादि में उनकी सहायता लेने की शक्ति है ऐसी वस्तुस्थिति है।
काल द्रव्य भी निष्क्रिय होता है, उसका कथन आगे करेंगे अतः यहां उसके संबंध में नहीं कहा है । अनन्तरवर्ती एक एक द्रव्य के निष्क्रियत्व का नियम बनाने हेतु च शब्द आया है। इससे धर्म अधर्म और आकाश के निष्क्रियपने का नियम हो जाने से जीव पुद्गलों में स्वतः और परतः क्रियाशीलपना सिद्ध हो जाता है।
शंका-सर्वगत होने से जीव भी निष्क्रिय है ?