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पंचमोऽध्यायः
[२६५ प्रमाण आत्मा घटमहं वेद्मि पटमहं वेग्रीत्यहमहमिकया तस्य स्वदेह एवाबाधबोधेनाध्यवसीय मानत्वात् । तन्तुसमवेतत्वेन प्रतीयमानपटस्य तत्प्रमाणत्ववत् । ननु सर्वगत आत्मा द्रव्यत्वे सत्यमूर्तत्वादाकाशवदिति चेन्न-नैयायिका दिप्रसिद्ध न मनसा व्यभिचारात् । तस्य द्रव्यत्वामूर्तत्वस्वभावेऽपि सर्व गतत्वाभावात् । लोकपूरणकाले कायप्रमाणता व्यभिचार इति चेन्न–तत्कालेऽपि कार्मणकायप्रमाणत्वस्य सद्भावात् । कार्मणकाययोगकृतात्मप्रदेशप्रसारणोपसंहरणपूर्वकं हि लोकपूरणादिकम् । कार्मण
समाधान-ऐसा नहीं कहना, जीव तो अपने शरीर प्रमाण रहता है अतः सर्वगत नहीं है । आगे इसीको बतलाते हैं-आत्मा शरीर प्रमाण है, क्योंकि मैं घट को जानता हूं, मैं पट को जानता हूं, इत्यादि प्रतीति में "मैं मैं" इस रूप निर्दोष बोध उसके स्वशरीर में अनुभव में आता है। जैसे कि तन्तुओं के समवेतपने से प्रतीत हुआ वस्त्र उन तन्तुप्रमाण ही दिखायी देता है, तन्तुओं के समवेत से बाह्य में प्रतीत नहीं होता । ठीक इसीप्रकार आत्मा शरीर में स्वसंवेद्य होता है अतः शरीर प्रमाण ही है शरीर के बाहर नहीं।
शंका-आत्मा सर्वगत है, क्योंकि उसमें द्रध्यपना होने के साथ अमूर्तपना पाया जाता है, जैसे कि आकाश में द्रव्यत्व और अमूर्त्तत्व होने से आकाश सर्वगत है ऐसे ही आत्मा सर्वगत है।
समाधान- यह परवादी का अनुमान उन्हीं नैयायिक आदि के मत में स्वीकार किये गये मन के साथ व्यभिचरित होता है। देखिये ! आपके मत में मनो द्रव्य में द्रव्यत्व और अमूर्तत्व स्वभाव रहने पर सर्वगतपना नहीं पाया जाता, अतः जो जो द्रव्य और अमूर्त रूप है वह वह सर्वगत है ऐसा अनुमान प्रमाण असत् ठहरता है।
शंका-आप जैन के यहां भी उक्त व्यभिचार दोष आता है, देखिये ! आपने आत्मा को शरीर प्रमाण सिद्ध किया किन्तु केवली समुद्घात के लोकपूरण काल में वह आत्मा सर्वत्र रहता है ?
समाधान-ऐसा नहीं है । लोकपूरण काल में भी आत्मा अपने कार्मण शरीर प्रमाण रहता है, बात ऐसी है कि आत्मा जब केवली समुद्घात में लोकपूरण आदि रूप होता है उस वक्त कार्मण काय योग के द्वारा किये गये आत्म प्रदेशों के प्रसारण और