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________________ २६२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती मिविविधजीवपुद्गलद्रव्यानेकपरिणामनिमित्तत्वेन सत्यपि भावतोऽनेकत्वे सति च प्रदेशभेदादसङ्ख्यय क्षेत्रत्वे धर्मद्रव्यमधर्मद्रव्यं च द्रव्यत एकैकमेव । अवगाह्यनेकद्रव्यविविधावगाहननिमित्तत्वेनानन्तभावत्वे सत्यपि प्रदेशभेदादनन्तक्षेत्रत्वेऽपि द्रव्यत एकमेवाकाशमिति न तु जीवपुद्गलवद्धर्मादीनां बहुत्वम् । नापि धर्मादिवज्जीवपुद्गलानामेकद्रव्यत्वं दृष्टष्टविरोधात् । कालद्रव्यं त्वसङ्ख्यातभेदं द्रव्यतस्तच्चोतरत्र वक्ष्यते । ततः सामर्थ्यादनेकद्रव्याणि पुद्गलादय इति च गम्यते । अधिकृतानामेवैकद्रव्याणां विशेषप्रतिपादनार्थमाह निष्क्रियाणि च ॥७॥ अभ्यन्तरं क्रियापरिणामशक्तियुक्त द्रव्यं बाह्य च प्रेरणाभिघातादिकं निमित्तमपेक्ष्योत्पद्यमानः पर्यायविशेषो द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रियेति व्यपदिश्यते । निष्कान्तानि क्रियाया निष्क्रियाणीत्यन्यपदार्थवृत्त्याप्रकृतैकद्रव्याणां गतिश्चशब्दस्य प्रकृताभिसम्बन्धार्थत्वात् । प्रकार के जो जीव और पुद्गल द्रव्य हैं उनके विविध परिणमन में निमित्त भूत होने के कारण ये धर्मादि पदार्थ भाव की [ पर्यायों की ] अपेक्षा यद्यपि अनेक हैं तथा प्रदेश भेद की दृष्टि से असंख्येय क्षेत्र वाले हैं किन्तु धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य द्रव्यदृष्टि से तो एक एक ही हैं । उसीप्रकार अवगाह लेने वाले अनेक द्रव्यों की विविध अवगाहना के निमित्त भूत होने से आकाश अनंत भाव स्वरूप है, तथा प्रदेश भेद की दृष्टि से अनंत क्षेत्र वाला है किन्तु द्रव्य दृष्टि से तो वह आकाश एक ही है। ये तीनों धर्म अधर्म आकाश, जीव और पुद्गलों के समान बहुत बहुत नहीं हैं। धर्मादि तीन द्रव्य एक एक हैं अतः जीव पुद्गल भी एक एक है ऐसा नहीं मानना क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष रूप से विरोध आता है । तथा ऐसा किसी को इष्ट भी नहीं है । काल द्रव्य द्रव्यदृष्टि से असंख्येय हैं ऐसा आगे कहेंगे । उससे सामर्थ्य से जाना जाता है कि पुद्गलादि द्रव्य अनेक हैं। अधिकार में आये हुए धर्मादि एक द्रव्यों की विशेषता का प्रतिपादन करते हैं सत्रार्थ-धर्मादि द्रव्य निष्क्रिय हैं । द्रव्य का अंतरंग में क्रिया परिणाम की शक्ति से युक्त होना और बाह्य में प्रेरणा, अभिघातादि निमित्त का होना इन दोनों की अपेक्षा लेकर द्रव्य में पर्याय विशेष होती है जो कि देश से देशान्तर में प्राप्त करने में हेतु है वह क्रिया कहलाती है । क्रिया से जो निष्क्रांत है वे निष्क्रिय हैं, इसमें अन्य पदार्थ प्रधान समास ( बहुब्रीहि समास ) है जिससे यह ज्ञात हो जाता है कि प्रकृत के धर्मादि एक एक द्रव्य क्रिया रहित हैं । च शब्द प्रकृत का संबंध करने के लिये है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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