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पंचमोऽध्यायः
[ २६१ अभिविध्यर्थोत्राङ क्तः । अभिविधिश्चाभिव्याप्तिः । तेनाकाशस्याप्येकद्रव्यत्वं सिद्धम् । सूत्रे आङो विसन्धिरसन्देहार्थः । सौत्रीमानुपूर्वीमाश्रित्य धर्माधर्माकाशानि गृह्यन्ते । असहायान्यप्रधानाद्यनेकार्थत्वे सत्यप्येकशब्दोऽत्र सङ्घयावचनो गृहीतव्यः । तहि तेन सामानाधिकरण्याद्रव्यशब्दस्याप्येक वचनमेव प्राप्नोतीति चेन्न-धर्मादिद्रव्याणां बहुत्वापेक्षया बहुवचनसिद्धेः । अत्र कश्चिदाह-आग्राकाशादेकैकमित्येतावदेव सूत्रमस्तु लघुत्वात् धर्मादीनामागमे द्रव्यव्यपदेशस्य प्रसिद्धत्वाच्च द्रव्यग्रहण मनर्थकमिति । तदयुक्त-धर्मादीनां द्रव्यापेक्षयवैकत्वख्यापनार्थत्वात् द्रव्यग्रहणस्य । एकैकमित्युक्त हि न ज्ञायते किं द्रव्यतः क्षेत्रतो भावतो वेति सन्देह एव स्यात् । ततोऽयमर्थो लभ्यते गतिस्थितिपरिणा
आङ अभिविधि अर्थ में आया है। अभिविधि व्याप्ति को कहते हैं, उससे आकाश के भी एकपना सिद्ध होता है। सत्र में आ और आकाशात् इनमें सन्धि नहीं की है जिससे आङ अभिविधि का अर्थ स्पष्ट हो जाय । “अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः" इस सूत्र में धर्मादि पदों का जो क्रम है तदनुसार "पा आकाशात् एक द्रव्याणि" इसमें धर्म अधर्म और आकाश का ग्रहण हो जाता है ।
एक शब्द के असहाय, अप्रधान आदि अनेक अर्थ होते हैं किन्तु यहां उन अनेक अर्थों में से संख्या अर्थ ग्रहण करना चाहिये ।
शंका-यदि ऐसी बात है तो द्रव्य शब्द भी एक वचनान्त होना चाहिये, क्योंकि एक और द्रव्य इन पदों में सामानाधिकरण है ?
समाधान-ऐसा नहीं है, धर्मादि द्रव्य बहुत हैं अतः बहुवचन किया गया है ।
शंका-यहां पर कोई शंका उपस्थित करता है कि "आ आकाशादेकैकम्" ऐसा सूत्र बनना चाहिये, इससे सूत्र छोटा हो जायगा । दूसरी बात यह भी है कि आगम में धर्मादि द्रव्य प्रसिद्ध ही हैं अतः द्रव्य शब्द का ग्रहण व्यर्थ है ?
समाधान-यह कथन अयुक्त है । धर्मादि द्रव्यों में द्रव्य की अपेक्षा एकपना है इस बात को बतलाने के लिये द्रव्य पद का ग्रहण हुआ है । “एकैकम्" ऐसा प्रयोग करते तो यह समझ में नहीं आता कि द्रव्य की अपेक्षा एक है, कि क्षेत्र की अपेक्षा एक है अथवा भाव की अपेक्षा एक है । इस विषय में संदेह बना रहता । "द्रव्याणि" पद लेने से यह निश्चय हो जाता है कि-गति और स्थिति रूप परिणाम के धारक अनेक