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________________ २५६ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती कथमिति चेदुच्यते—पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्ममनांसीति नवैव द्रव्याणि वैशेषिक रुक्तानि । तत्र पृथिव्यप्तेजोवायवो द्रव्यमनश्च पुद्गलेऽन्तर्भवन्ति रूपरसगन्धस्पर्शवत्वात् । भावमनश्च ज्ञानम् । तस्यात्मन्यन्तर्भावः । जीवा इति बहुवचनं द्वैविध्यनानात्वख्यापनार्थं क्रियते । विविधा हि जीवाः संसारिणो मुक्ताश्चेति । संसारिणोऽपि गतिन्द्रियादिचतुर्दशमार्गणास्थानविकल्पात्, मिथ्यादृष्टयादिचतुर्दशगुणस्थानभेदात्, सूक्ष्मवादरादिचतुर्दशजीवस्थानविकल्पाच्च विविधाः। तथा मुक्ताश्चैकद्वित्रिचतु:संख्येयासंख्येयानन्तसमयसिद्धपर्यायभेदाश्रयात्, मुक्तिहेतुशरीराकारानुविधायिस्वक्षेत्रावगाहनादिभेदाच्च सूत्र में 'जीवाः' ऐसा बहुवचन किया है वह जीवों के दो प्रकार एवं नानाप्रकार बतलाने हेतु किया है । जीव विविध प्रकार के हैं, जैसे संसारी और मुक्त । संसारी के गति इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं के अपेक्षा चौदह भेद होते हैं । मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों की अपेक्षा चौदह एवं सूक्ष्म बादर आदि चौदह जीवसमासों की अपेक्षा चौदह भेद होते हैं । तथा मुक्त जीवों के विविध भेद संभव हैं-एक, दो, तीन, चार, संख्येय, असंख्येय और अनंत समय के अन्तराल से सिद्ध पर्याय प्राप्त की इत्यादि अपेक्षा तथा मुक्ति के कारण भूत शरीर के आकार के अनुविधायिपना अपने अपने क्षेत्र तथा अवगाहना इत्यादि के भेद से सिद्धों में भेद कल्पित कर विविधपना हो जाता है। विशेषार्थ-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार इसप्रकार चौदह मार्गणायें होती हैं, इनसे संसारी जीवों के चौदह भेद होते हैं । इन चौदह मार्गणाओं के उत्तर भेद पंचानवें १५ हैं। मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र, अविरत-सम्यग्दृष्टि, विरताविरत, प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली ये चौदह गुणस्थान संसारी के होते हैं । एकेन्द्रिय जीवों के बादर और सूक्ष्म ऐसे दो भेद, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ये तीन तथा पंचेन्द्रिय के संज्ञी असंज्ञी दो भेद ऐसे सात हए इनको पर्याप्त और अपर्याप्त की अपेक्षा गुणा करने पर चौदह जीव समास संसारी के होते हैं । इसतरह संसारी जीव नाना प्रकार के हैं। मुक्त जीव सभी समान गुण समूह से मण्डित अनंत सुख के भोक्ता लोकान में विराजमान हैं उनमें सभी स्वतन्त्र अस्तित्व वाले हैं कोई उपाधियां नहीं होने से वास्तव में एक समान हैं । केवल भूत पूर्व प्रज्ञापन नय की अपेक्षा भेद संभव हैं, वह इसप्रकार हैं—एक समय में एक साथ कितने सिद्ध हुए, दो समयादि में कितने इसप्रकार भेद करते हैं। जिस चरम शरीर से मुक्त हुए वह शरीर छह संस्थान वाला होता है इस
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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