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पंचमोऽध्यायः
[ २५७ विविधाः । स्यान्मतं ते-द्रव्याणीति पृथग्योगो न कर्तव्यः । किं तर्हि ? द्रव्याणि जीवा इत्येक एव योगः कार्यः । एवं च सति चशब्दाकरणाल्लाघवं स्यादिति । तन्न युक्त-द्रव्यशब्दस्य जीवबद्धत्वाज्जीवानामेव द्रव्यसज्ञाप्रसङ्गात्, धर्मादीनां तु न स्यात् । बहुवचनात्तेषामपि भविष्यतीति चेन्न-तस्य वैविध्यख्यापनार्थत्वेनोक्तत्वात् । सदधिकारे यत्नविशेषस्याकरणाच्चाऽजीवानां द्रव्यसञ्ज्ञा न स्यादिति पृथग्योगकरणं न्याय्यम् । तथा च सति चशब्दोप्यर्थवान्भवतीति । उक्तानां द्रव्याणां विशेषप्रतिपादनार्थमाह
दृष्टि से उनमें भेद करना, शरीर की अवगाहना पांच सौ पच्चीस धनुष से लेकर साढ़े तीन हाथ तक संभव है उस अपेक्षा से भेद करना, मनुष्य लोक में पंद्रह कर्म भूमियां हैं उनमें से किस क्षेत्र से मुक्त हुए अथवा संहरण-उपसर्ग की अपेक्षा अन्य भोग भूमि आदि में क्षेपे जाने पर वहां से मुक्त हुए इत्यादि दृष्टि से सिद्धों में भेद कल्पित किया जाता है । इसका दसवें अध्याय के नौवें सूत्र में विशेष वर्णन करने वाले हैं । इसप्रकार जीवों के बहुत से भेदों का ज्ञापन कराने हेतु एवं उनकी अनंत संख्या बतलाने हेतु 'जीवाः' ऐसा बहुवचन का प्रयोग सूत्र में हुआ है ।
शंका-'द्रव्याणि' "जीवाश्च" ऐसे पृथक् दो सूत्र नहीं करने चाहिये । किन्तु "द्रव्याणि जीवाः" ऐसा एक सूत्र बनाना चाहिये । ऐसा करने पर च शब्द जोड़ने की आवश्यकता नहीं होती और सूत्र लघु हो जाता है ।
समाधान-यह कथन ठीक नहीं है। यदि ऐसा एक योग करते हैं तो द्रव्य शब्द जीव के साथ संबद्ध हो जाने से जीवों की ही द्रव्य संज्ञा होगी, धर्म आदि की नहीं।
शंका-बहुवचन के निर्देश से धर्मादि की भी द्रव्य संज्ञा हो जायगी ?
समाधान-ऐसा नहीं है । बहुवचन तो द्रव्यों की एवं जीवों की विविधता बतलाता है । तथा सत अधिकार में यत्नविशेष भी नहीं किया है, इससे अजीव पदार्थों की द्रव्य संज्ञा नहीं बन पाती, एतदर्थ पृथक् पृथक् सूत्र प्रयोग ही व्याप्य है । इसप्रकार करने से च शब्द भी सार्थक हो जाता है।
उक्त द्रव्यों की विशेषता का प्रतिपादन करते हैं