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पंचमोऽध्यायः
[ २५५ शब्दस्याविष्टलिङ्गत्वात्स्वकीयनपुसकलिङ्गपरित्यागेन लिङ्गान्तरे वृत्त्ययोगाद्वनादिशब्दवत् । अनन्तरत्वाच्चतुर्णामेव द्रव्यत्वप्रसङ्ग जीवानामद्रव्यव्यवच्छेदार्थ माह
जीवाश्च ॥३॥ उक्तलक्षणा जीवाः । चशब्दो द्रव्याणीत्यस्यानुकर्षणार्थः । तेन जीवाश्च द्रव्याणि भवन्तीति वेदितव्यम् । स्यान्मतं ते-उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सदिति गुणपर्ययवद्रव्यमिति च द्रव्यलक्षणं वक्ष्यते । ततस्तेन योगाद्धर्माधर्माकाशपुद्गलानां जीवानां च वक्ष्यमाणेन कालेन सह द्रव्यत्वं सिद्धम् । किमनेन द्रव्यपरिगणनेनेति । तन्न युक्तम् । किं कारणम् ? नियमार्थत्वाद्र्व्यसङ्ख्यानस्य । तेन धर्माधर्माकाश पुद्गलजीवकालाः षडेव द्रव्यारणीति नियमात्परवादिपरिकल्पितानां दिगादीनां निवृत्तिः सिद्धा भवति ।
धर्मादि पद पुल्लिग होने से द्रव्य पद भी पुल्लिग होना चाहिये । ऐसी आशंका भी नहीं करना, क्योंकि द्रव्य शब्द आविष्ट लिंगवाला है वह अपना नपुसक लिंग छोड़कर लिंगान्तर को प्राप्त नहीं होता जैसे वन आदि शब्द अन्य लिंग रूप नहीं होते।
अनंतर होने से धर्मादि चार को ही द्रव्यपने का प्रसंग आने पर जीव नाम का द्रव्य भी है इस बात का निर्णय करने के लिये सूत्र कहते हैं
सूत्रार्थ-जीव भी द्रव्य है।
जीवों का लक्षण कह चुके हैं । च शब्द "द्रव्याणि" सूत्र के अनुकर्षण के लिये है । उससे जीव भी द्रव्य होते हैं ऐसा निश्चय होता है ।
शंका-"उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त सत्, गुण पर्ययवद् द्रव्यं" इसप्रकार सूत्रों द्वारा आगे द्रव्य का लक्षण कहेंगे, उससे धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल का तथा जीव एवं वक्ष्यमाण काल का द्रव्यपना सिद्ध होता है, अतः “द्रव्याणि" "जीवाश्च" इन सूत्रों द्वारा द्रव्यों की गणना करने में क्या लाभ है ?
समाधान-यह शंका ठीक नहीं है, द्रव्यों की गणना करने से नियम बन जाता है उससे धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, जीव और काल ये छह ही द्रव्य हैं ऐसा नियम हो जाने से परवादी परिकल्पित दिशादि द्रव्यों का निरसन हो जाता है। कैसे सो बताते हैं-पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन ये नौ द्रव्य वैशेषिक द्वारा कहे जाते हैं, उनमें पृथिवी, जल, तेज, वायु और द्रव्य मन का पुद्गल द्रव्य में अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि ये सभी पदार्थ रूप रस गंध स्पर्श वाले हैं। भाव मन ज्ञान रूप है उसका आत्मा में अन्तर्भाव होता है ।