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________________ २५२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती गत्याधुपग्रहान्प्रति प्रवर्तमानाः स्वयमेव तथा परिणमन्ते न परप्ररणादिना तेषां प्रवृत्तिः परद्रव्यादेनिमित्तमात्रत्वात् । कालोप्यजीवपदार्थोऽस्ति । तस्याऽत्रोपादानं कर्तव्यमिति चेन्न-तस्याकायत्वादूत्तरत्र वक्ष्यमाणलक्षणत्वात् । सांप्रतं धर्मादीनां द्रव्यत्वविधानार्थमाह द्रव्याणि ॥२॥ स्वैः स्वः पर्याय यन्ते गम्यन्ते संप्रतीयन्त इति द्रव्याणि गत्यर्थानां ज्ञानार्थत्वात् । इवार्थे वा द्रव्यं भव्य इत्यनेन निपातितो द्रव्यशब्दो वेदितव्यः । द्र रिव भवतीति द्रव्यम् । क उपमार्थ इति चेदच्यते-द्र रिति दारुनाम । यथा ग्रन्थिरहितमजिह्म ऋजुकाष्ठं तक्ष्णोपकल्प्यमानमभिलषितेनाकारेणाविर्भवति तथा द्रव्यमप्यात्मपरिणामगमनसमर्थं पाषाणखननोदकवदविभक्तिकर्तृकरणमुभयनिमित्तवशोपनीतात्मना तेन तेन पर्यायेण द्ररिव भवतीति द्रव्यमित्युपमीयते । वक्ष्यते च सद्रव्यलक्षण समास किया गया है। क्योंकि ये धर्मादि द्रव्य अपने अपने गति स्थिति आदि उपकार को करने में प्रवृत्तमान होते हुए स्वयं ही परिणमन करते हैं, परकी प्रेरणा आदि से उनकी प्रवृत्ति नहीं होती है । वे तो पर द्रव्यादि के निमित्त कारण मात्र हैं। शंका-काल नाम का पदार्थ भी अजीव है, उसको यहां ग्रहण करना चाहिये ? समाधान- यह कथन ठीक नहीं है । काल द्रव्य अकाय स्वरूप है ( एक प्रदेशी है) उसका कथन तो आगे करेंगे। इस समय धर्मादि के द्रव्यत्व का विधान करने के लिये कहते हैं सत्रार्थ-वे धर्मादिक द्रव्य कहलाते हैं । अपने अपने पर्यायों द्वारा जो प्राप्त होते हैं-जाने जाते हैं वे द्रव्य हैं, द्रूयन्ते इति द्रव्याणि, द्रु धातु से द्रव्य शब्द बनता है, गमनार्थक धातु ज्ञानार्थक भी होते हैं, इस न्याय से गमनार्थक द्रु धातु से ज्ञानार्थ में द्रव्य शब्द निष्पन्न हुआ है । अथवा इव अर्थ में "द्रव्यं भव्ये” इस सूत्र से द्रव्य शब्द निपात से बनता है । “द्रुः इव भवति इति द्रव्यम्" द्रु के समान होता है वह द्रव्य है, क्या उपमा है ऐसे प्रश्न पर कहते हैं-द्रु सीधी लकड़ी को कहते हैं, जैसे गांठ रहित सीधी लकड़ी बढ़ई द्वारा छीलने पर इच्छित आकार से चौकी पट्टा आदि रूप प्रगट होती है इसीतरह द्रव्य भी अपने परिणमन को प्राप्त करने में समर्थ है। पाषाण के खोदने से जैसे जल निकलता है उनमें अभिन्न कर्तृ करणपना है, इसीप्रकार उभय निमित्त के वश से प्राप्त हुए उस उस पर्याय से द्रु के समान जो होता है वह द्रव्य है। इसतरह उपमा दी जाती है । आगे सूत्र कहने वाले हैं कि “सद् द्रव्य लक्षणं, उत्पाद
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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