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________________ पंचमोऽध्यायः [ २५१ निपातितः । यथा शवशयनं श्मशानमिति । परमाणूनां निरवयवत्वात्पूरणगलनाभावात्पुद्गलव्यपदेशाभावप्रसङ्ग इति चेन्न–गुणापेक्षया तत्सिद्धिः । रूपरसगन्धस्पर्शगुणयुक्ता हि परमाणवः । एकगुणरूपादिपरिणता द्वित्रिचतुःसङ्खये यासङ्घय यानन्तगुणत्वेन वर्धन्ते तथैव हानिमुपयान्तीति गुणापेक्षया भावपूरणगलनोपपत्तेः परमाणुष्वपि पुद्गलत्वं न विरुध्यते । अथवा पूरणगलनयो वित्वाद्भूतत्वाच्च शक्तयपेक्षया परमाणुषु पुद्गलत्वमौपचारिकं बोद्धव्यम् । अथवा पुम्भिर्जीवैः शरीराहारविषयकरणोप करणादिभावेन गिल्यन्त इति पुद्गलाः । परमाण्वादिषु तदभावादपुद्गलत्वमिति चेन्न-दत्तोत्तरत्वात् । एतेन विभागकथनं निरुक्तया विशेषलक्षणाभिधानं च कृतम् । धर्माधर्माकाशपुद्गला इत्यत्र समाहारे समुदायप्रधाने एकवचनेन सिद्धेर्बहुवचनमेषां स्वातन्त्रयप्रतिपत्त्यर्थं द्रष्टव्यम् । धर्मादयो हि शंका-परमाणु अवयव रहित होते हैं अतः उनमें पूरण गलन का अभाव होने से पुद्गल संज्ञा का अभाव होता है ? समाधान-ऐसी शंका ठीक नहीं है । परमाणुओं में गुणों की अपेक्षा पूरण गलन होता है अतः पुद्गल संज्ञा सिद्ध होती है। परमाणु स्पर्श, रस, गंध वर्ण वाले होते हैं। एक गुण रूपादि से परिणमन करते हुए दो, तीन, चार, संख्येय, असंख्येय और अनंत गुणपने से बढ़ते हैं उसीप्रकार घटते भी हैं इसप्रकार गुणों की अपेक्षा भावरूप प्ररण गलन परमाणुओं में भी होता रहता है इसलिये उनमें पुद्गलत्व विरुद्ध नहीं है। अथवा पहले पूरण गलन हो चुका है या आगे पूरण गलन होगा ( स्कन्ध अवस्था में ) इसतरह शक्ति की अपेक्षा परमाणुओं में पुद्गलत्व औपचारिक है ऐसा समझना चाहिये । अथवा पुरुषों द्वारा ( जीवों द्वारा ) शरीर के आहार का विषय कर उपकरणादि भाव से निगले जाते हैं वे पुद्गल हैं । शंका-पुद्गल का यह लक्षण परमाणु आदि में घटित नहीं होता अतः वे अपुद्गल ठहरते हैं ? समाधान-ऐसा नहीं कहना, इसका उत्तर तो पहले दे चुके हैं । अर्थात् परमाणु जब स्कंध रूप होते हैं तब पुरुष द्वारा निगले जाते हैं इस दृष्टि से उन्हें पुद्गल कहने में बाधा नहीं आती है। इसप्रकार धर्मादि का विभाग एवं उनका निरुक्ति परक लक्षण किया गया है । "धर्माधर्माकाशपुद्गलाः" इसमें इतरेतर द्वन्द्व समास किया है। समुदाय प्रधान समाहार द्वन्द्व समास करके एक वचन हो सकता था किन्तु धर्म द्रव्य अधर्म द्रव्य आदि द्रव्य स्वतन्त्र हैं इस बात को बतलाने के लिये बहुवचन वाला द्वन्द्व
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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