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________________ २५० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ व्यभिचारसम्भवान्नीलोत्पलादिवदत्र कर्मधारयः । धर्मादयोऽर्हत्प्रणीते परमागमेऽनादिपारिणामिक्यः सञ्ज्ञा रूढा वेदितव्याः । अथवा क्रियानिमित्ता एता सज्ञा व्युत्पाद्यन्ते । कथमिति चेदुच्यते-स्वयं गतिक्रियापरिणामिनां जीवपुद्गलानां साचिव्यं यो ददाति स धर्मः । तद्विपरीतलक्षणश्चाधर्मः । जीवादीनि द्रव्याणि स्वैः स्वैः पर्यायैरव्यतिरेकेण यस्मिन्नाकाशन्ते प्रकाशन्ते तदाकाशम् । स्वयं चात्मीयपर्यायमर्यादया आकाशत इत्याकाशम् । इतरेषां द्रव्याणामवकाशदानसामर्थ्याद्वाऽऽकाशमिति पृषोदरादिषु यथोपदिष्ट मित्यत्र निपातितः शब्दः । पूरणगलनान्वर्थसज्ञात्वात्पुद्गलाः । यथा भासं करोतीति भास्कर इति भासनार्थमन्तीय भास्करसज्ञाऽन्वर्था प्रवर्तते तथा भेदात्सङ्गाताद्भ दसङ्गाताभ्यां च पूर्यन्ते गलन्ति चेति पूरणगलनात्मिकां क्रियामन्तर्भाव्य पुद्गलशब्दोऽन्वर्थः पृषोदरादिषु साथ भी है क्योंकि जीवद्रव्य भी अस्तिकाय-( बहुप्रदेशी ) स्वरूप है । तथा अकेला अजीव पद होवे तो काल द्रव्य के साथ व्यभिचार आता है क्योंकि काल अजीव तो है किन्तु काय स्वरूप नहीं है अतः अजीव कायाः ऐसा रखा गया है। जैसे नीलं च तत् उत्पलं च नीलोत्पलम् इसमें कर्मधारय समास है, नीलत्व उत्पल को छोड़कर अन्यत्र भी है तथा उत्पल भी केवल नीलरूप नहीं है-लाल आदि वर्ण रूप भी है अतः व्यभिचार संभव होने से कर्मधारय समास किया जाता है। अर्हत्प्रणीत आगम में धर्म आदिक संज्ञायें अनादि पारिणामिक रूढ हैं ऐसा जानना चाहिये । अथवा ये संज्ञायें क्रिया निमित्तक व्युत्पादित की जाती हैं। कैसे सो बताते हैं-स्वयं गति क्रिया में परिणत हुए जीव और पुद्गलों को जो साचिव्यसहायता देता है वह धर्म है साचिव्यं ददाति [ दधाति ] इति धर्मः । इससे विपरीत लक्षण वाला अधर्म है । जीवादिक द्रव्य अपने अपने पर्यायों द्वारा अव्यतिरेक से जिसमें प्रकाशित होते हैं वह आकाश है । तथा स्वयं भी अपनी पर्यायों की मर्यादा से प्रकाशित होता है वह आकाश है । इतर द्रव्यों को अवकाश देने में समर्थ होने के कारण भी आकाश कहलाता है । "पृषोदरादिषु यथोपदिष्टम्" इस नियम से आकाश शब्द निपात सिद्ध भी है। जो पूरण गलन करे वह पुद्गल है यह अन्वर्थ संज्ञा है, जैसे "भासं करोति इति भास्करः" यहां भास-प्रकाश का अर्थ निहित होने से भास्कर संज्ञा अन्वर्थ है वैसे भेद से, संघात से और भेद संघात दोनों से जो पूरित होते और गलते हैं इसतरह पूरण गलन क्रिया अन्तर्निहित होकर पुद्गल शब्द अन्वर्थ संज्ञा वाला सिद्ध होता है, यह पृषोदरादि गण में निपात सिद्ध है। जैसे "शव शयनं श्मशानम" शव जहां सोते हैं वह श्मशान है ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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