________________
अथ पंचमोऽध्यायः
जोवतत्त्वं व्याख्यातमिदानीमजीवतत्त्वस्य सामान्यलक्षणाऽनेकप्रदेशत्वभाग्विभागविशेषलक्षणसूचनार्थमाह
अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥१॥ चेतनोपयोगजीवनलक्षणो जीव उक्तस्तद्विपरीतलक्षणाः पुनरजीवाः । अनेन सामान्यलक्षण मुक्तम् । काया इव कायाः । यथौदारिकादिशरीरनामकर्मोदयवशात्पुद्गलाश्चीयन्ते कायास्तथा धर्मादीनामनादिपारिणामिकप्रदेशचयनात्कायत्वम् । कायग्रहणेन धर्मादीनां प्रदेशबहुत्वं ज्ञापितं कालस्य च निषिद्धम् । अजीवाश्च ते कायाश्च अजीवकायाः । अजीवत्वं काले कायत्वं जीवेप्यस्तीत्युभयपद
जीवतत्त्व का कथन कर दिया है, अब अजीव तत्त्व का सामान्य लक्षण तथा उनमें अनेक प्रदेशपने का विभाग विशेष की सूचना के लिये सूत्र कहते हैं
सूत्रार्थ-धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये अजीव काय हैं । चेतन, उपयोग लक्षण जीव है, इसका वर्णन कर दिया है, उससे विपरीत लक्षण वाले अजीव हैं । यह अजीव का सामान्य लक्षण है। काय के समान काय है, जैसे औदारिक आदि शरीर नाम कर्म के उदय वश से पुद्गल संचित होते हैं वे काय कहलाते हैं वैसे धर्म आदि द्रव्य अनादि पारिणामिक रूप से प्रदेश संचय रूप रहते हैं अतः इनमें कायपना है। काय शब्द से धर्मादि द्रव्यों का बहुप्रदेशपना सिद्ध होता है और काल में बहप्रदेशत्व का निषेध हो जाता है । "अजीव कायाः" इसमें कर्मधारय समास है । काल द्रव्य में अजीवपना है और जीव द्रव्य में कायपना है इसप्रकार उभय पद व्यभिचरित है अर्थात् काल में कायत्व नहीं होते हुए भी अजीवत्व है और जीव में कायत्व रहते हुए भी अजीवत्व नहीं है, इसतरह व्यभिचार दोष संभव होने से नीलोत्पल पद के समान यहां कर्मधारय समास किया है।
___ विशेषार्थ-अजीवाश्च ते कायाश्च अजीवकायाः इसप्रकार अजीव और काय इन दो पदों में कर्मधारय समास किया गया है । अकेला काय पद होवे तो वह जीवके