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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती
शशधरकरनिकरसता र निस्तलतरलतल मुक्ताफलहा रस्फारतारा निकुरुम्ब बिम्ब निर्मल तरपरमोदार शरीरशुद्धध्यानानलोज्ज्वलज्वालाज्वलितघन घातीन्धन सङ्घातसकल विमल केवलालोकितसकललोकालोकस्वभावश्री मत्परमेश्वरजिनपतिमत विततमतिचिदचित्स्वभावभावाभिधान साधित स्वभावपरमाराध्यतम महासेद्धान्तः श्रीजिनचन्द्रभट्टारकच्छ पण्डित श्रीभास्करनन्दिविरचितमहाशास्त्रतत्त्वार्थ वृत्तौ सुखबोधायां
चतुर्थोऽध्याय समाप्तः ।
स्वसंवेदन प्रमाण से सिद्ध ही है, यह आत्मा गतिशील - गमन स्वभाव - वाला है । सर्व कर्म से रहित होकर जब गमन करेगा तो वह कहीं जाकर ठहरेगा ही जहां ठहरेगा वहीं लोक का आखिर अग्र भाग है । कोई जीव अत्यधिक पाप कर नीचे चला जाता है तो नीचे जहां जाकर ठहरेगा वहीं लोक का अधो भाग का अंत है इसतरह ऊर्ध्व अधः भाग सिद्ध है तो मध्य भाग स्वतः सिद्ध हो है इसतरह तीनों लोक युक्ति से सिद्ध हो जाते हैं । इस ग्रन्थ में सम्यग्दर्शनादि का कथन है, सम्यग्दर्शन का स्वामी जीव है, जीव सर्व लोक में गमन करता है अतः तीन लोक का वर्णन आवश्यक है । इस लोक को स्थिर मानना भी जरूरी है क्योंकि अपने प्रतीति में जो पृथिवी भाग है। वह स्थिर ही प्रतीत होता है अतः सर्व लोक स्थिर ही होगा ऐसा युक्ति से सिद्ध होता है । लोक का आधार वातवलय है । इस लोक में जो विविधता है वह भी विचित्र कर्मोदय के वश से है । इसतरह सर्व ही आगमोक्त बातें युक्ति पूर्ण हैं अनुमानादि से सिद्ध हैं अतः लोक का वर्णन करने वाला आगम प्रामाणिक है ।
जो चन्द्रमा की किरण समूह के समान विस्तीर्ण, तुलना रहित मोतियों के विशाल हारों के समान एवं तारा समूह के समान शुक्ल निर्मल उदार ऐसे परमोदारिक शरीर के धारक हैं, शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि की उज्ज्वल ज्वाला द्वारा जला दिया है घात कर्म रूपी ईन्धन समूह को जिन्होंने ऐसे तथा सकल विमल केवलज्ञान द्वारा संपूर्ण लोकालोक के स्वभाव को जानने वाले श्रीमान परमेश्वर जिनपति के मत को जानने में विस्तीर्ण बुद्धि वाले, चेतन अचेतन द्रव्यों को सिद्ध करने वाले परम आराध्य भूत महासिद्धान्त ग्रन्थों के जो ज्ञाता हैं ऐसे श्री जिनचन्द्र भट्टारक हैं उनके शिष्य पंडित श्री भास्करनंदी विरचित सुख बोधा नामवाली महा शास्त्र तत्त्वार्थ सूत्र की टीका में चतुर्थ अध्याय पूर्ण हुआ ।