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________________ चतुर्थोऽध्यायः [ २४७ त्यन्तिकं सङ क्लेशं प्रकृष्टतमोऽधोगतिहेतु बिभ्राणस्याधो गच्छतः क्वचिदधोऽवस्थित्यभावे पवनबाणादिवद्गतिमत्वानुपपत्तेस्तदवस्थानप्रदेशस्याधोलोकावधित्वसिद्धिर्भवति । तथा प्रसिद्धयोश्चानयोरूर्वाधोलोकभागयोर्मध्यलोकभागाभावे प्रासादादिवदघटनान्मध्यलोकसिद्धिर्भवतीति लोकत्रयं सम्भाव्यत एव । लोकत्रयं चावस्थितमस्ति । तदभावे प्रतीतभूभागावस्थानाघटनात् । तथा पवनवलयसिद्धिरप्यस्ति समन्तात्तदसम्भवे लोकत्रयोद्धृत्यनुपपत्तेः । तथाऽवान्तरलोकविशेषाणां चावान्तरविशुद्धिसंक्लेशनिमित्तकर्मोपात्तावान्तरलोकाश्रयसंसारिसिद्धेः प्रकर्षाप्रकर्षतारतम्यसिद्धिरस्तीति न किञ्चिदप्यत्रासम्भावनीयं वस्तु वचन विषयभूतम् । तथा प्रतिपादयिष्यते चोत्तरत्र कर्मसम्बन्धत तुवैचित्रयमित्यलमतिविस्तरेण ।। पुण्य से विहीन है वह ऊर्ध्व या तिरछा गमन नहीं करता किन्तु प्रकृष्टतम अधोगति के कारणभूत अत्यन्त संक्लेश को धारण करता है वह नीचे जाता है, नीचे जाते हुए उसका कहीं पर अवस्थान होना चाहिये अन्यथा वायु और बाण आदि के समान गतिपना असंभव है, अब वह जहां स्थित होता है वहां अधोलोक की अवधि सिद्ध होती है। तथा इसप्रकार ऊर्ध्वलोक और अधोलोक के सिद्ध होने पर मध्यलोक स्वतः सिद्ध होता है, क्योंकि मध्यलोक के अभाव में ऊर्ध्व अधोलोक असंभव ही है जैसे महल का ऊर्ध्व अधोभाग है तो मध्य भाग अवश्यंभावी है। ऐसे तीन लोक सिद्ध हो जाते हैं । जो तीन लोक हैं वे स्थित हैं, यदि स्थित नहीं होवे तो भूमिभाग अवस्थित रूप साक्षात प्रतीत होता है वह नहीं हो सकता था। इसीप्रकार वातवलय की सिद्धि भी हो जाती है, क्योंकि चारों ओर से वायु मण्डल नहीं होवे तो तीन लोक का धारणपना बनता नहीं तथा लोक में जो अवान्तर विशेषतायें हैं [ अनेक नरक बिल अनेक विमान पटल, द्वीप, सागर, पृथिवी इत्यादि ] वे सभी अवान्तर अनेक प्रकार की विशुद्धि और अनेक प्रकार के संक्लेश परिणामों के निमित्त से उपार्जित किया गया जो कर्म समूह है उनके कारण अनेक भेद वाले संसारी जीव हैं और उनके भेद के कारण आश्रय भूत लोक में विविधता है । इसतरह प्रकर्ष अप्रकर्ष के तरतमता की सिद्धि होती है। इसमें कुछ भी असंभव रूप वस्तु का कथन नहीं है । तथा आगे कर्मों का संबंध उसके कारण आदि की विविधता का प्रतिपादन भी करने वाले हैं अब इस विषय में अधिक नहीं कहते । विशेषार्थ-यहां पर शंका की गयी थी कि तीन लोक का वर्णन करने वाला आगम प्रमाण भूत कैसे माना जाय ? इसके समाधान में ग्रन्थकार ने कहा कि आत्मा
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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