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________________ सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ सर्वलौकान्तिकानामेकैव स्थितिः । सर्वे च ते शुक्ललेश्याः पञ्चहस्तोत्सेधशरीरा इति चात्र बोद्धव्यम् । अपरः प्रपञ्चः सर्वस्य भाष्ये द्रष्टव्यः संक्षेपतोऽत्र लोकत्रयाश्रयस्य संसारिणो जीवस्य सम्यग्दर्शनविषयत्वेनोपक्षिप्तस्य सूचनात् । कुतः पुनर्लोकत्रयावधिप्रतिपादकागमस्य सम्भवदर्थविषयत्वम् ? यतः सुनिश्चितसकल बाधकरहितत्वात्तस्य प्रामाण्यं स्यादिति चेत् — सम्यग्युक्तय पपन्नत्वादिति ब्रूमः । तथाहि - प्रमाणसिद्धस्यात्मनो गतिस्वभावस्याशेषपापविधुरस्याधस्तिर्यग्गमनरहितस्यात्यन्तिकीं विशुद्धि प्रकृष्टतमोर्ध्वगतिहेतुमादधानस्योर्ध्वं गच्छतः क्वचिदवस्थानाभावे पवनबारणादिवद् गतिमत्वानुपपत्तेस्तदवस्थानप्रदेशस्योर्ध्वलोकावधित्व सिद्धिर्भवति सकलपुण्य विकलस्य चोर्ध्वं तिर्यग्गमन रहितस्या २४६ ] सभी लौकान्तिकों की एक सी ही आयु है । वे सभी देव शुक्ल लेश्या वाले, पांच हाथ की शरीर ऊंचाई वाले होते हैं ऐसा जानना चाहिये । इतर सर्व विस्तार भाष्य ग्रंथ में देखना चाहिये । इस ग्रन्थ में तो संक्षेप से कथन है, संसारी जीव तीन लोकों के आश्रय में रहते हैं, संसारी के सम्यग्दर्शन के विषयभूत तीन लोकादि हैं उनका यहां सूचना रूप कथन किया गया है । भाव यह है कि यह तत्त्वार्थ वृत्ति ग्रन्थ तत्त्वों का संक्षिप्त मात्र कथन करता है । उसमें सम्यग्दर्शन आदि के वर्णन के अन्तर्गत संसारी जीव, उनके आश्रयभूत तीन लोक आदि का कथन अल्प प्रमाण में किया है। विशेष जानकारी के लिये तत्त्वार्थ राजवार्तिक आदि ग्रन्थ अवलोकनीय है । शंका- तीन लोकों की अवधि को बतलाने वाला आगम वास्तविक अर्थ वाला है यह किससे जाना जाता है ? जिससे कि उसमें सुनिश्चित रूप से सकल बाधाओं से रहितपना होने से प्रामाणिकता मानी जाय ? समाधान — आगम समीचीन युक्तियों से परिपूर्ण है अतः प्रमाणभूत है ऐसा हम कहते हैं । आगे इसी को बताते हैं- आत्मा प्रमाण से सिद्ध है और वह गति स्वभाव वाला है जो आत्मा संपूर्ण पाप से रहित - कर्मों से रहित होता है वह नीचे और तिरछे रूप से गमन नहीं करता अपितु प्रकृष्टतम ऊर्ध्वगति के कारणभूत अत्यन्त विशुद्धि को धारण करता हुआ ऊपर जाता है । अब ऊपर जाते हुए उस जीव के यदि कहीं अवस्थान नहीं होगा तो वायु और बाण आदि के समान उसका गतिशीलपना ही बन नहीं सकता, अर्थात् जैसे वायु आदि पदार्थ गतिशील हैं तो कहीं जाकर स्थित भी होते हैं अन्यथा उनमें गतिपना बनता नहीं वैसे ही जीव यदि गतिशील है और ऊपर जारहा है तो वह कहीं अवश्य रुकेगा, वह जहां स्थित होता है वही लोक का अग्रभाग है लोक की सीमा है । इसतरह ऊर्ध्वलोक की अवधि सिद्ध होती है । तो जो आत्मा सकल
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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