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________________ पंचमोऽध्यायः [ २५३ मुत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्त सत् गुणपर्ययवद्रव्यमिति च । ततश्च द्रव्यलक्षणयोगात्प्रकृता धर्मादयो द्रव्याण्येव । न पुनर्धर्माधर्मावदृष्टाख्यावात्मगुणौ । नाप्याकाशमभावमात्रं च । न पुद्गला रूपादय एव विशेषाः प्रतीतिविरोधादिति निवेदितं भवति । अथ मतमेतत्-यथा दण्डसम्बन्धाद्दण्डीत्यभिधानं प्रत्ययश्च देवदत्त भवति तथा द्रव्यत्वं नाम सामान्यविशेषोऽस्ति पृथिव्यादिषु द्रव्यमिति प्रत्ययाभिधानानुवृत्तिप्रदर्शनात् । गुणकर्मभ्यो व्यावृत्त्युपलब्धेश्चानुमीयमानान्वयव्यतिरेकाख्यस्तेन योगाद्रव्यं न पर्यायद्रवणादिति । तन्न युक्तिमत् । किं कारणम् ? तदभावात् । यथा दण्डसम्बन्धात्प्राग्देवदत्तो जात्यादिभिः सिद्धोऽस्ति, देवदत्तसम्बन्धाश्च प्राग्दण्डो वृत्तत्वदीर्घत्वादिभिः प्रसिद्धोऽस्ति, ततस्तयोः व्यय ध्रौव्य युक्त सत्" गुणपर्ययवद्रव्यम् । अतः द्रव्य का लक्षण घटित होने से ये धर्मादिक द्रव्य ही कहलाते हैं। परवादी वैशेषिक धर्म अधर्म नाम के आत्मा के गुण मानते हैं, उस लक्षण वाले धर्मादि नहीं हैं, आकाश भी अभाव मात्र नहीं है। रूपादि गुण ही पुद्गल हैं ऐसा नहीं कहना क्योंकि ऐसा मानने में प्रतीति से विरुद्ध पड़ता है। विशेषार्थ-परवादी वैशेषिक आदि लोक पदार्थ को सात प्रकार का मानते हैंद्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव । पुनः द्रव्यों के नौ भेद, गुणों के चौवीस भेद, कर्म के पांच भेद, सामान्य का एक भेद ( अथवा दो भेद ) विशेष अनेकानेक भेद और अभाव के चार भेद मानते हैं । गुणों के चौवीस भेदों में धर्मअधर्म नाम के दो गुणों को उन्होंने आत्मद्रव्य में माने हैं तथा रूप, रस, गंध, स्पर्श को केवल गुण रूप माना है आकाश द्रव्य को तो केवल पोलरूप माना है अर्थात् कोई रिक्त स्थान हो वह आकाश कहलाता है जैसे ढोल में पोल होती है वह आकाश है इत्यादि सो यहां पर ग्रंथकार ने उन मान्यताओं का निरसन कर कहा है कि धर्म अधर्म आत्मा के गुण नहीं हैं किन्तु स्वतन्त्र दो द्रव्य हैं । आकाश केवल शून्य रूप नहीं किन्तु अनंत प्रदेशी एक वास्तविक पदार्थ है । रूपादि गुण भी पुद्गल द्रव्य रूप आधार के बिना नहीं रहते इत्यादि । इस वैशेषिक की मान्यता का पूर्व पक्ष रखकर बहुत ही सुन्दर रूप से प्रमेय कमल मार्तण्ड आदि न्याय ग्रंथों में निराकरण किया गया है । शंका-देवदत्त में दण्ड के संबंध से दण्डी ऐसा नाम और ज्ञान जैसे होता है वैसे पृथिवी आदि में द्रव्यत्व नाम का सामान्य विशेष रहता है उसके द्वारा द्रव्य ऐसा नाम तथा प्रत्यय-ज्ञान एवं अनुप्रवृत्ति देखी जाती है। क्योंकि द्रव्य ऐसा नाम और प्रत्यमादिक गुण और कर्म से तो होता नहीं अतः अन्वयव्यतिरेकी अनुमान द्वारा वह
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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