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________________ चतुर्थोऽध्यायः [ २४१ ततः पारिशेष्यात् सौधर्मेशानयोर्देवानां साधिकं पल्योपमं जघन्या स्थितिर्वेदितव्या तत ऊर्ध्वं जघन्यस्थितिप्रदर्शनार्थमाह परतः परतः पूर्वापूर्वानन्तरा ॥ ३४ ॥ परस्मिन् देशे परतः । तस्य वीप्सायां द्वित्वम् । तथा पूर्वाशब्दस्यापि । न विद्यतेऽन्तरं व्यवधानं यस्याः सानन्तरा। अपरा स्थितिरित्यनुवर्तते । किमुक्त भवति ? पूर्वा पूर्वा याऽनन्तरा स्थितिरुत्कृटोक्ता सा उपर्युपरि देवानां जघन्येत्येतदुक्तं भवति । सा चाधिकग्रहणानुवर्तना सातिरेका संप्रतीयते । ततः सौधर्मेशानयोः परा स्थिति सागरोपमे साधिके उक्त । ते सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सातिरेके जघन्या स्थितिः । सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः परा स्थितिः सप्तसागरोपमाणि साधिकान्युक्तानि । तानि सातिरेकाणि ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरयोर्जघन्या स्थितिरित्यादि योज्यम् । आविजयादिभ्योऽनुत्तरेभ्योऽयम वाले हैं, उससे पारिशेष न्याय से सौधर्म ईशान स्वर्ग के देवों की जघन्य आयु कुछ अधिक एक पल्य प्रमाण है ऐसा जानना चाहिये । अभिप्राय यह है कि सूत्र में सौधर्म ईशान का उल्लेख नहीं है तो भी प्रकरण आदि से उनका ग्रहण होता है । उससे आगे के स्वर्गों की जघन्य स्थिति का प्रतिपादन करते हैं सूत्रार्थ-आगे के स्वर्गों में जघन्य स्थिति जो पूर्व के स्वर्ग में उत्कृष्ट है वह होती है, अर्थात् पहले पहले स्वर्ग की जो उत्कृष्ट आयु स्थिति है वह आगे आगे स्वर्ग में जघन्य हो जाती है। "परस्मिन् देशे परतः" सप्तमी अर्थ में यहां तस् प्रत्यय आया है। वीप्सा अर्थ में परतः परतः ऐसा द्वित्व हुआ है । इसीतरह पूर्व शब्द को द्वित्व हुआ है। जिसमें अन्तर नहीं है, व्यवधान नहीं है वह अनन्तरा है, अपरा स्थिति का प्रकरण चल रहा है । इससे क्या कहा सो बताते हैं-पूर्व पूर्व की जो अनंतर स्थिति उत्कृष्ट है, वह आगे आगे के देवों की जघन्य स्थिति है । अधिक शब्द का अनुवर्तन है इससे वह जघन्य स्थिति कुछ अधिक होती है ऐसा प्रतीत होता है। इसीको बताते हैं-सौधर्म ईशान में उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक दो सागर की है, सानत्कुमार माहेन्द्र में वही कुछ अधिक होकर जघन्य स्थिति बन जाती है। सानत्कुमार माहेन्द्र में उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक सात सागर की है, वही कुछ अधिक होकर ब्रह्म ब्रह्मोत्तर में जघन्य स्थिति हो जाती है। इसप्रकार विजयादि अनुत्तर विमानों तक लगा लेना चाहिये । प्रश्न-विजयादि विमानों तक क्यों योजना करना ?
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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