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________________ २४२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती धिकारो वेदितव्यः। कुत इति चेत् सर्वार्थसिद्धः पृथग्ग्रहणं जघन्यस्थितिनिवृत्त्यर्थमित्युक्तत्वात् । व्यवहितेऽपि पूर्वशब्दः प्रयुज्यमानो दृश्यते । यथा पूर्वं मधुरायाः पाटलीपुत्रमिति । तस्माद्वयवहितस्थितिनिरासार्थमनन्तरेति विशेषणं क्रियते । पश्चादनन्तरानिवृत्त्यर्थं पूर्वति च विशेषणम् । अप्रकृतानामपि नारकाणां जघन्यां स्थिति संक्षेपार्थमिह प्रकाशयन्नाह नारकाणां च द्वितीयादिषु ॥ ३५ ॥ द्वितीया शर्करा प्रभा । सा आदिर्यासां ता द्वितीयादयो नरकभूमयस्तासु द्वितीयादिषु । परतः परतः पूर्वापूर्वानन्तरा परा स्थितिरित्येतस्यार्थस्य समुच्चयार्थश्चशब्दः कृतः। तेनायमर्थो लब्धःरत्नप्रभायां नारकाणां परा स्थितिरेकं सागरोपमम् । सा शर्कराप्रभायां जघन्या । शर्कराप्रभायां त्रीणि सागरोपमाणि परा स्थितिरुक्ता । सा वालुकाप्रभायां जघन्या । तस्यां परा स्थितिरुक्ता। सप्तसागरो ___ उत्तर-सर्वार्थसिद्धि पद का पृथक् रूप से ग्रहण किया है उसीसे वहाँ जघन्य स्थिति का निषेध हो जाता है । व्यवहित में भी पूर्व शब्द का प्रयोग देखा जाता है, जैसे मथुरा से पूर्व में पाटलीपुत्र नगर है [ पटना ] इसतरह पूर्व शब्द का अर्थ व्यवहित लेकर व्यवहित की स्थिति का निराकरण करने के लिये “अनंतरा" यह विशेषण दिया है। तथा पश्चात् के अनंतर का निराकरण करने के लिये "पूर्वा" विशेषण दिया है। अब आगे यद्यपि नारकियों का प्रकरण नहीं है तो भी उनकी जघन्य स्थिति संक्षेप कथन के लिये बतलाते हैं सत्रार्थ-द्वितीय आदि नरकों में नारकी जीवों की जघन्य स्थिति वह होती है जो पूर्व के नरक में उत्कृष्ट होती है । द्वितीय नरक शर्करा प्रभा है, वह जिसके आदि में है वे नरक भूमियां द्वितियादिषु पद से ग्रहण की हैं । “परतः परतः पूर्वापूर्वानन्तरा" परा स्थिति: "पूर्व पूर्व की जो उत्कृष्ट स्थिति है वह आगे आगे जघन्य हो जाती है" इस अर्थ का समुच्चय करने हेतु "च" शब्द को ग्रहण किया है। उससे यह अर्थ प्राप्त होता है कि-रत्नप्रभा में नारक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम है, वह शर्करा प्रभा में जघन्य स्थिति है। शर्करा प्रभा में उत्कृष्ट स्थिति तीन सागर की है, वह वालुका प्रभा में जघन्य स्थिति है। वालुका प्रभा में उत्कृष्ट आयु सात सागर है, वही पंकप्रभा में जघन्य
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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