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________________ २४० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती कृतम् । विजय प्रादिर्येषां तानि विजयादीनि ग्रैवेयकविजयादिष्विति समासेन सिद्धे ग्रैवेयकेभ्यो विजयादीनां पृथग्ग्रहणमनुदिशसंग्रहार्थं कृतम् । सर्वार्थसिद्धेस्तु पृथग्वचनं जघन्य स्थितिनिवृत्त्यर्थम् । तेनैतदुक्त भवति-अधोग्रैवेयकेषु प्रथमे देवानां त्रयोविंशतिसागरोपमाणिपरा स्थितिः। द्वितीये चतुर्विशतिः । तृतीये पञ्चविंशतिः । मध्यमवेयकेषु प्रथमे षड्विंशतिः । द्वितीये सप्तविंशतिः । तृतीयेऽष्टाविंशतिः । उपरिमग्रैवेयकेषु प्रथमे एकोनत्रिंशत् । द्वितीये त्रिंशत् । तृतीये एकत्रिंशत् । अनुदिशविमानेषु द्वात्रिंशत् । विजयादिषु त्रयस्त्रिंशत् । सर्वार्थसिद्धौ त्रयस्त्रिशदेव सागरोपमाणि परा स्थितिरिति । सर्वार्थसिद्धे चेत्यपि पाठान्तरमस्ति । परा स्थितिरुक्ता । सांप्रतमाद्यकल्पयोस्तावज्जघन्यां स्थिति प्रतिपादयन्नाह अपरा पल्योपममधिकम् ॥ ३३ ॥ अपरा जघन्येत्यर्थः। स्थितिरित्यनुवर्तते । पल्योपमं व्याख्यातलक्षणम् । अधिकमभ्यधिकमित्यर्थः । भवनवास्यादीनां जघन्या स्थितिर्वक्ष्यते । सानत्कुमारादीनां चोत्तरसूत्रेणैव वक्ष्यमाणा। विजय है आदि में जिनके वे विजयादिक । “वेयक विजयादिषु" ऐसा समास कर सकते हैं किन्तु अवेयक से विजयादि को पृथक् इसलिये रखा है कि जिससे अनुदिश का ग्रहण हो । “सर्वार्थसिद्धौ” इस पद का पृथक् ग्रहण इसमें जघन्य आयु नहीं होती इस बातको स्पष्ट करने के लिये किया है । उससे अब यह अर्थ होता है कि-अधोवेयकों में से पहले ग्रैवेयक में देवों को उत्कृष्ट आयु तेईस सागर की है। दूसरे वेयक में चौवीस सागर, तीसरे में पच्चीस सागर की आयु है । मध्यम वेयकों में पहले में छब्बीस सागर द्वितीय में सत्ताईस सागर, तृतीय में अट्ठावीस सागर की उत्कृष्ट आयु है । ऊर्ध्व ग्रेवेयकों में से प्रथम में उनतीस सागर, द्वितीय में तीस सागर और तृतीय ग्रंवेयक में इकतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । अनुदिश विमानों में बत्तीस सागरोपम विजयादि चार विमानों में तैतीस सागर और सर्वार्थसिद्धि में तैतीस सागर ही उत्कृष्ट आय जाननी चाहिये । “सर्वार्थसिद्धे च" इस तरह भी पाठान्तर देखा जाता है । इसतरह उत्कृष्ट स्थिति का कथन पूर्ण हुआ । अब आदि के कल्प युगल में जघन्य स्थिति का प्रतिपादन करते हैंसूत्रार्थ-प्रथम कल्पयुगल में देवों की जघन्य आयु एक पल्य से कुछ अधिक है। अपरा जघन्य को कहते हैं। स्थिति का प्रकरण चल रहा है। पल्योपम का लक्षण कह चुके हैं। अधिक का अर्थ कुछ अधिक है । भवनवासी आदि की जघन्य स्थिति आगे कहेंगे । और सानत्कुमार आदि की जघन्य स्थिति उत्तर सूत्र द्वारा कहने
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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