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________________ चतुर्थोऽध्यायः [ २३९ चतुस्त्रिशत्पत्यानि । प्राणते एकचत्वारिंशत्पत्यानि । श्राररणकल्पेऽष्टचत्वारिंशत्पत्यानि । अच्युतकल्पे पञ्चपञ्चाशत्पत्यानि परा स्थितिरिति । मतान्तरेण पुनर्द्वयोर्द्वयोः कल्पयोर्देवीनां परा स्थितिरुच्यतेसोधर्मेशानयोर्देवीनां पञ्चपल्यानि तुल्या परा स्थिति: । सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्तदशपल्यानि । ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरयोः पंचविंशति पल्यानि । लान्तवकापिष्ठयोः पञ्चत्रिंशत्पत्यानि । शुक्रमहाशुक्रयोश्च - त्वारिंशत्पत्यानि । शतारसहस्रारयोः पञ्चचत्वारिंशत्पत्यानि । श्रानतप्राणतयोः पञ्चाशत्पल्यानि । प्रारणाच्युतयोः पञ्चपञ्चाशत्पत्यानि परा स्थितिरिति । तत ऊर्ध्वं का स्थितिः परेत्याह श्रारणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च ।। ३२ ॥ ग्रारणश्चाच्युतश्चाररणाच्युतं तस्मादारणाच्युतात् । ऊर्ध्वमुपरीत्यर्थः एकैकेनेत्येक ववदित्यनेन वीप्साया द्विरुक्तस्यैकशब्दस्य पूर्वावयवे विभक्त र्लोपश्च भवति । तेनानुवर्तमानाधिकशब्दसम्बन्धादेकै - harधिकानीति व्याख्यायते । नवसु ग्रैवेयकेषु प्रत्येकमेकैकस्य सागरोपमस्याधिक्यज्ञापनार्थं नवग्रहणं पच्चीस पल्य, सहस्रार में सत्तावीस पल्य, आनत में चौतीस पल्य, प्राणत में एकता - लीस पल्य, आरण कल्प में अड़तालीस पत्य और अच्युत में देवियों की उत्कृष्ट आयु पचपन पत्य प्रमाण है । मतान्तर की अपेक्षा तो दो दो कल्पों में देवियों की उत्कृष्ट आयु इसप्रकार कही जाती है— सौधर्म और ईशान इन दोनों कल्पों में देवियों की आयु समान रूप से पांच पल्य की है । सानत्कुमार माहेन्द्र में सतरह पल्य, ब्रह्मलोक - ब्रह्मोत्तर में पच्चीस पल्य, लान्तव कापिष्ठ में पैंतीस पल्य, शुक्र महाशुक्र में चालीस पल्य, शतार सहस्रार में पैंतालीस पल्य, आनत प्राणत में पचास पल्य और आरण अच्युत के देवियों की उत्कृष्ट आयु पचपन पल्य प्रमाण होती है । अब सोलह स्वर्गों के आगे उत्कृष्ट स्थिति कितनी है यह सूत्र द्वारा बतलाते हैं— सूत्रार्थ - आरण अच्युत के आगे एक एक सागर स्थिति बढ़ती है नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश, विजयादिक और सर्वार्थ सिद्धि पर्यन्त । आरण अच्युत पदों में द्वन्द्व समास है । उससे ऊर्ध्व अर्थात् ऊपर । “एकैकेन” इस पद में वीप्सा अर्थ में एक शब्द को दो बार कहा है, इसमें पूर्व के एक शब्द की विभक्ति का लोप हुआ है । उस एक शब्द के साथ अधिक शब्द का संबंध कर देने से एक एक अधिक है ऐसा व्याख्यान करते हैं । नौ ग्रैवेयकों में प्रत्येक में एक एक सागर अधिक करना है इस बात को स्पष्ट करने के लिये "नवसु" पद का ग्रहण किया है ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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