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________________ चतुर्थोऽध्यायः [ २३७ सौधर्मश्चैशानश्च सौधर्मेशानौ । तयोः सौधर्मेशानयोः । सागरोपमे इति द्विवचननिर्देशाद्वे सागरोपमे इति गम्यते । प्रासहस्रारादधिके इत्ययमधिकारो द्रष्टव्यः । उत्तरत्र तृतीयसूत्रे तुशब्दस्यैतदर्थविशेषार्थत्वात् । तेन सौधर्मशानयोः कल्पयोर्देवानामधिकृतोत्कृष्टा स्थितिसागरोपमे सातिरेके प्रत्येतव्ये । तदनन्तरयोः स्थितिमाह सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त ॥ ३० ॥ सानत्कुमारश्च माहेन्द्रश्च सानत्कुमारमाहेन्द्रौ। तयोः सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः । अत्र सागरोपमग्रहणमधिकग्रहणं चानुवर्तते । तेन सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः कल्पयोर्देवानामुत्कृष्टा स्तिथि: सप्तसागरो पमाणि साधिकानीति गम्यते । ब्रह्मलोकादिष्वच्युतावसानेषु प्रकष्टस्थितिप्रतिपादनार्थमाह त्रिसप्तनबकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरषिकानि तु ॥ ३१ ॥ त्रीणि च सप्त च नव च एकादश च त्रयोदश च पञ्चदश च तानि तथोक्तानि । तस्त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिः । सप्तग्रहणमधिकृतम् । तस्येह निर्दिष्ट स्ट्यादिभिर्द्वयोर्द्वयोः कल्पयोर सौधर्म ऐशान पद में द्वन्द्व समास है । "सागरोपमे' इस द्विवचन निर्देश से दो सागर का बोध होता है । सहस्रार स्वर्ग तक अधिक का अधिकार समझना, आगे के इकतीसवें सूत्र में 'तु' शब्द आया है, वह इस अधिक शब्द को कहांतक लगाना इस अर्थ की सूचना देता है । इसतरह सौधर्म और ईशान कल्पों के देवों की उत्कृष्ट आयु कुछ अधिक दो सागर प्रमाण है ऐसा निश्चय होता है । उससे आगे के दो स्वर्गों की स्थिति बतलाते हैं सूत्रार्थ-सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्प में कुछ अधिक सात सागर प्रमाण स्थिति है। सानत्कुमार आदि पदों में द्वन्द्व समास है । सागरोपम और अधिक शब्द का अनुवर्तन चलेगा, उससे सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक सात सागरोपम है यह जाना जाता है । ब्रह्मलोक से लेकर अच्युत तक के देवों की प्रकृष्ट स्थिति को बतलाते हैं सूत्रार्थ-पांचवें छठे आदि स्वर्गों में क्रमशः तीन अधिक सात सागर, सात अधिक सात सागर, नौ अधिक सात सागर, ग्यारह अधिक सात सागर, तेरह अधिक सात सागर, पंद्रह अधिक सात सागर आयु हैं ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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