________________
सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती
भवनवास्यादिनिकाय त्रय देवायुषोऽष्टमांशस्तद्द ेव्यायुषः प्रमारणमिति चात्र बोद्धव्यम् । श्रद्यदेवनिकाय स्थित्यभिधानानन्तरं व्यन्तरज्योतिष्कस्थितिवचनं क्रमप्राप्तम् । तदुल्लङ्घय तावद्वैमानिकानां स्थितिरुच्यते । कुत इति चेत्तयोरुत्तरत्र संक्षेपतोऽभिधानात् । तेषु चाद्ययोः कल्पयोः स्थितिप्रतिपादनार्थमाहसौधर्मेशानयोः सागरोपमे श्रधिके ।। २६ ॥
२३६ ]
भवनवासी आदि तीन निकाय के देवों की जो आयु है उनसे आठवें भाग प्रमाण उन उनके देवियों की आयु है ऐसा विशेष भी यहां समझना चाहिये ।
नोट- यहांपर भवनत्रिक के देवियों की आयु अपने अपने देवों की आयु से आठवें भाग प्रमाण बतलाई है उसमें असुरकुमार की अपेक्षा छोड़ देना, क्योंकि भवनवासियों में असुरकुमार की आयु एक सागरोपम है सागर का आठवां भाग बहुत बड़ा होता है उसमें कई करोड़ पल्य होंगे किन्तु देवियों की आयु इतने अधिक पल्यों की संभव नहीं है [क्योंकि आगम में निषेध है ] अतः असुरकुमार को छोड़कर शेष देवों के आयु के आठवें भाग प्रमाण उन उनके देवियों की आयु है ऐसा समझना चाहिये । यह तो इस ग्रन्थ के अभिप्रायानुसार कहा । त्रिलोकसार में असुरकुमार आदि के देवियों की आयु अढ़ाई पल्य आदि कही है । ज्योतिष्क देवियों की आयु अपने अपने देवों की आयु के आधे भाग प्रमाण है । व्यन्तरों के देवियों की आयु आधा पल्य है । यह सब आयु प्रमाण उत्कृष्टता की अपेक्षा से है, मध्यम तथा जघन्य की अपेक्षा तो इससे बहुत कम है । आयु संबंधी यह वर्णन त्रिलोकसार से जानना चाहिये । यहां पर इतना ही कहना है कि असुरकुमार की देवियों की आयु का प्रमाण अपने देव के आयु से आठवें भाग रूप नहीं लेना, शेष देवों के देवियों की आयु के लिये आठवां भाग लेना । ग्रन्थकार ने सामान्यतः भवनत्रिक कहा है, उसमें असुरकुमार की अपेक्षा गौण की है ।
प्रथम निकाय के देवों की स्थिति कहने पर क्रम प्राप्त व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों की स्थिति कहना चाहिये किन्तु उसका उल्लंघन करके पहले वैमानिक देवों की स्थिति बतलाते हैं ।
- ऐसा क्यों करते हैं ?
उत्तर—उन व्यन्तर और ज्योतिष्कों की स्थिति आगे संक्षेप में कहने में आ जाती है अत: अब आदि के दो कल्पों की स्थिति का प्रतिपादन करते हैं—
सूत्रार्थ - सौधर्म और ऐशान के देवों की आयु दो सागर से कुछ अधिक है ।
प्रश्न