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________________ चतुर्थोऽध्यायः [ २३३ चरमशब्दोऽन्त्यवाची व्याख्यातः । द्वौ चरमौ देही येषां ते द्विचरमाः । द्विचरमत्वं च मनुष्यदेहद्वयापेक्षमवगन्तव्यम् । वचनप्रामाण्यावभवेनाऽवश्यंभाविना व्यवधानं सदप्यत्र न विवक्षितम् । अथ के तिर्यग्योनय इत्याह प्रौपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ॥ २७ ॥ औपपादिका उक्ता देवानारकाः । मनुष्याश्च व्याख्याताः-प्राङ मानुषोत्तरान्मनुष्या इति । तेभ्योऽन्ये ये ते शेषास्तिर्यग्योनयो भवन्ति । औपपादिकमनुष्येभ्योऽन्यत्वं सिद्धानामप्यस्तीति तिर्यग्योनित्वप्रसङ्ग इति चेन्न—संसारिप्रकरणादुक्त भ्यः शेषाः संसारिण एव तिर्यग्योनयो न सिद्धा इति का नियम नहीं है ऐसा सामर्थ्य से ही जाना जाता है । चरम शब्द अन्त्यवाची है ऐसा पहले कह दिया है। दो चरम देह हैं जिनके वे द्विचरमा कहलाते हैं दो चरम देह मनुष्य के देह की अपेक्षा लेना। आगम के वचन प्रामाण्य से जाना जाता है कि अवश्यंभावी देव भव से व्यवधान होता है तो भी उस भव की विवक्षा नहीं लेकर द्विचरमा कहते हैं । अभिप्राय यह है कि दो मनुष्य भव लेने में देव भव का अंतराल अवश्य पड़ता है इससे दो से अधिक भव होते हैं तो भी मनुष्य भवों की अपेक्षा से विजयादि विमानों के देवों को द्विचरमा कहते हैं । ये देव दो मनुष्य भवों को लेकर नियम से मुक्त हो जाते हैं । तिर्यंच कौन हैं ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं सूत्रार्थ-उपपाद जन्म वाले देव नारकी और मनुष्य को छोड़कर शेष संसारी जीव तिर्यंच योनि वाले हैं । औपपादिक देव नारकी का कथन कर चुके हैं। "प्राङ मानुषोत्तरान् मनुष्याः" इस सूत्र में मनुष्यों का वर्णन भी कर दिया है। उन सबसे अन्य शेष जीव तिर्यंच योनिज हैं। शंका-औपपादिक और मनुष्यों से अन्य तो सिद्ध जीव भी हैं, उक्त कथनानुसार उनके तिर्यंच योनिपना आता है ? समाधान-ऐसा नहीं कहना । यहां संसारी जीवों का प्रकरण है, अतः उक्त जीवों से शेष संसारी जीव ही तिर्यंच योनि वाले हैं सिद्ध जीव नहीं ऐसा व्याख्यान से ज्ञात होता है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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