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________________ २३२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ वसवश्च । अरिष्टसारस्वतयोर्मध्ये अश्वाविश्वाश्चेति द्वौ द्वौ देवगणो समुच्चीयेते । सर्वे ते लौकान्तिकाः स्वतन्त्राहीनाधिकभावरहितत्वात् । देवर्षयश्च ते सर्वेषां देवानामर्चनीया विषयासक्तिविरहा च्चतुर्दशपूर्वश्रुतधारित्वात्तीर्थकरनिष्क्रमणप्रतिबोधनपरत्वात्तदनन्तरभवे मोक्षार्हत्वाच्चेति व्याख्येयम् । द्विचरमा देवाः क्व सम्भवन्तीत्याह विजयाविषु द्विचरमाः ।। २६ ॥ आदिशब्दस्यात्र प्रकारवाचित्वाद्विजयवैजयन्तजयन्तापराजितानुदिशविमानानामिष्टानां ग्रहणम् । प्रकारश्चात्राहमिन्द्रत्वे सति नियमेन सम्यग्दृष्टय पपादः । न चैवं सर्वार्थसिद्धदेवानां ग्रहणप्रसङ्गस्तेषामन्वर्थसज्ञानिर्देशादेकचरमत्वसिद्धेः । सर्वार्थसिद्धौ चेति पृथग्वचनाच्च न तत्र द्विचरमसिद्धिः । सामर्थ्याद्विजयादिभ्योऽन्यत्र सम्यग्दृष्टिषु देवादिषु द्विचरमत्वनियमो नास्तीति वेदितव्यम् । अरिष्ट के मध्य में मरुत वसु, अरिष्ट और सारस्वत के अन्तराल में अश्व विश्व नामके दो दो देव गण निवास करते हैं। ये सर्व ही लौकान्तिक देव स्वतन्त्र हैं क्योंकि ये हीनाधिक भाव से रहित हैं। सभी देवों के द्वारा अर्चनीय होने से देवर्षि कहलाते हैं। विषय आसक्ति से रहित होने से वे देवों द्वारा पूज्य हैं। चतुर्दश पूर्वश्रुत धारण करने वाले हैं, तीर्थंकर के दीक्षा कल्याणक में प्रतिबोध देने में तत्पर रहते हैं तथा अनंतर भव में मोक्ष जाने वाले हैं, इसप्रकार लौकान्तिक देवों का विशेष व्याख्यान जानना चाहिये। प्रश्न-द्वि चरमा देव कहां पर संभव हैं ? उत्तर- अब इसीको बताते हैंसूत्रार्थ-विजय आदि विमानों में दो चरम शरीर धारी देव रहते हैं। यहां आदि शब्द प्रकार वाची है अतः विजय, वैजयन्त, जयन्त अपराजित और नौ अनुदिश विमानों का ग्रहण हो जाता है । यहां के देव अहमिन्द्र हैं तथा नियम से सम्यग्दृष्टि ही यहां पर पैदा होते हैं अर्थात् विजयादि विमानों में जन्म लेने वाले सभी जीव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं । अवेयक से यहां यह विशेषता है। विजयादि शब्द से सर्वार्थसिद्धि देवों का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि उनके देवों की अन्वर्थ संज्ञा है, वहां के देव तो एक चरमा हैं। तथा पूर्व सूत्र में "सर्वार्थसिद्धौ च" ऐसा पृथक् पद का ग्रहण है इससे वहां के देवों को द्विचरमपना सिद्ध नहीं होता, वे तो एक चरम ही होते हैं । विजयादि तेरह विमानों के देवों को छोड़कर शेष सम्यग्दृष्टि देवों में द्विचरमपने
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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