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________________ [ २३१ चतुर्थोऽध्यायः ब्रह्मलोकालयानां लौकान्तिकत्वं भवेत् । ब्रह्मलोकालया इति वचनाल्लौकान्तिकानां कल्पोपपन्नकल्पातीतविकल्पद्वयात्तृतीयविकल्पत्वं च निरस्तम् । ततः प्रच्युताः सर्वे ते एकमनुष्यभवमवाप्य परिनिर्वान्तीति चात्र बोद्धव्यम् तेषां सज्ञाविशेषसङ्कीर्तनार्थमाह ___ सारस्वतादित्यवह्नयरुणगर्वतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च ॥ २५॥ सारस्वतश्च-देवगण आदित्यश्च वह्निश्चारुणश्च गर्दतोयश्च तुषितश्चाव्याबाधश्चारिष्टश्च ते तथोक्ताः । ब्रह्मलोकस्यान्तेष्वीशानादिष्वष्टासु दिक्षु यथाक्रमं प्रतिनियतस्वविमानवासिनः सारस्वतादयोऽष्टो देवगणा वेदितव्याः । चशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थस्तेन सारस्वतादित्ययोरन्तरालेऽग्नयाभाः । सूर्याभाश्च । आदित्यवहूयोरन्तराले चन्द्राभाः सत्याभाश्च । वयरुणयोर्मध्ये श्रेयस्कराः क्षेमडराश्च । अरुणगर्दतोययोर्मध्ये वृषभोष्टाः कामचाराश्च । गर्दतोयतुषितयोर्मध्ये निर्माणरजसोदिगन्त रक्षिताश्च । तुषिताव्याबाधयोरन्तराले आत्मरक्षिताः सर्वरक्षिताश्च । अव्याबाधारिष्टयोर्मध्ये मरुतो लौकान्तिक देवों की अन्वर्थ संज्ञा कर देने से ब्रह्मलोक में आलय वाले सभी देवों को लौकान्तिकपना नहीं आता। लौकान्तिक देव ब्रह्मलोकालय वाले हैं ऐसा स्पष्टीकरण करने से वे देव कल्पोपपन्न हैं कि कल्पातीत हैं अथवा तीसरे किसी स्थानीय हैं इसतरह विकल्प समाप्त हो जाते हैं । ये सर्व ही लौकान्तिक उस ब्रह्म स्वर्ग से च्युत होकर एक मनुष्य भव लेकर निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं यह अर्थ जान लेना चाहिये । । अब उन देवों के नामों को कहते हैं सूत्रार्थ-सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित अव्याबाध और अरिष्ट ये लौकान्तिकों के नाम हैं ( या प्रकार हैं ) सारस्वत आदि शब्दों में द्वन्द्व समास है । ब्रह्मलोक के अन्त भाग में ईशान आदि आठ दिशाओं में होनेवाले प्रतिनियत अपने अपने विमानों में निवास करने वाले ये आठ सारस्वतादि देव गण जानने चाहिये । च शब्द अनुक्त के समुच्चय के लिये है, उससे अन्तराल में स्थित देवों का ग्रहण हो जाता है । आगे इसीको बताते हैं-सारस्वत और आदित्य के अन्तराल में अग्न्याभ और सूर्याभ नाम के देव रहते हैं । आदित्य और वन्हि के अन्तराल में चन्द्राभ सत्याभ, वन्हि और अरुण के अन्तराल में श्रेयस्कर क्षेमंकर, अरुण और गर्दतोय के अन्तराल में वृषभेष्ट कामचार, गर्दतोय और तुषित के मध्य भाग में निर्माणरज दिगंत रक्षित, तुषित और अव्याबाध के अन्तराल में आत्मरक्षित सर्वरक्षित, अव्याबाध और
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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