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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती
वादितस्त्रिषु पीतान्तलेश्या इत्येतत्सूत्रानन्तरमेवेदं लेश्या विधानं वक्तव्यं नात्रेति चेत् तदयुक्त - लघ्वर्थत्वादिहारम्भस्य । तत्रारम्भे हि पुनः सौधर्मादिवचनं कर्तव्यं स्यादन्यथा तदभिसम्बन्धाघटनात् । अथ के कल्पा ? इत्याह
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प्राग्र वेयकेभ्यः कल्पाः ।। २३ ।।
सौधर्मादिग्रहणमनुवर्तते । तेनायमर्थो लभ्यते —– सौधर्मादयः प्राग्ग्रैवेयकेभ्यः कल्पा इति सामर्थ्याद्ग्रैवेयकादयः कल्पातीता इति निश्चीयन्ते । इदानीं लौकान्तिकानां कल्पविशेषेऽन्तर्भावमाहब्रह्मलोकालया लौकान्तिकाः ॥ २४ ॥
एत्य तस्मिन् लीयन्त इत्यालयो निवास इत्यर्थः । ब्रह्मलोक प्रलयो येषां ते ब्रह्मलोकालयाः । ब्रह्मकल्पः संसारो वात्र लोकस्तस्यान्ते भवा लौकान्तिका उच्यन्ते । एवं चान्वर्थसञ्ज्ञाकररणान्न सर्वेषां
शंका- " आदितस्त्रिषु पीतान्त लेश्याः” इस दूसरे नंबर के सूत्र के अनंतर ही यह लेश्या का विधान कहना चाहिये था यहां पर कहना युक्त नहीं ?
समाधान — यह शंका गलत है, यहां पर लेश्या का कथन करने से सूत्र लाघव होता है । यदि वहां पर लेश्या का कथन करते तो पुनः सौधर्मादि का ग्रहण करना पड़ता अन्यथा लेश्याओं का संबंध घटित नहीं हो पाता ।
कल्प कौन हैं ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं
सूत्रार्थ —- ग्रैवेयक के पहले तक कल्प हैं ।
सौधर्मादि का प्रकरण है उससे यह अर्थ प्राप्त होता है कि सौधर्मादि से लेकर ग्रैवेयक के पहले तक कल्प हैं । पुनः सामर्थ्य से ग्रैवेयक आदि आगे के विमान कल्पातीत हैं यह निश्चित होता जाता है ।
अब लौकान्तिक देवों का कल्प विशेष में अन्तर्भाव करते हैं
सूत्रार्थ - ब्रह्मलोक में आलय वाले लौकान्तिक देव होते हैं ।
" एत्य तस्मिन् लीयन्ते इति आलय: निवास:" आकर उसमें रहा जाय वह आलय है, ब्रह्मलोक है आलय जिनके वे ब्रह्मलोकालय हैं । जो ब्रह्म कल्प के अन्त में होवे, अथवा जिनके संसार का अन्त होने वाला है वे लौकान्तिक कहलाते हैं । इसप्रकार