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________________ [ २२९ चतुर्थोऽध्यायः अपोति नास्ति दोषः । अथैवमपि सम्बन्धोऽयमनुपपन्नः सूत्रे द्वित्रिशेषग्रहणात् । सूत्रे ह्यवं पठ्यतेद्वयोः पीतलेश्यास्त्रिषु पद्मलेश्याः शेषेषु शुक्ललेश्या इति । तच्चागमविरुद्धमिति । तदयुक्तमिच्छातः सम्बन्धोपपत्तेः। तथाहि-द्वयोः कल्पयुगलयोः पीतलेश्या देवाः सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः पालेश्याया अविवक्षातः । ब्रह्मलोकादित्रिषु कल्पयुगलेषु पद्मलेश्याः शुक्रमहाशुक्रयोः शुक्ललेश्याया अविवक्षातः । शेषेषु शतारादिषु शुक्ललेश्याः पद्मलेश्याया अविवक्षात इति नास्त्यर्थविरोधः तथाचोक्त सौधर्मेशानयोः पीता पीतापद्म द्वयोस्ततः । कल्पेषु षट्स्वतः पद्मा पद्माशुक्ले ततो द्वयोः ।। आनतादिषु शुक्लातस्त्रयोदशसु मध्यमा। चतुर्दशसु सोत्कृष्टाऽनुदिशाऽनुत्तरेषु च ।।इति।। का ग्रहण समझना चाहिये इसमें कोई दोष नहीं है । अभिप्राय यह है कि पहले दूसरे स्वर्ग में पीत लेश्या है, सानत्कुमार माहेन्द्र में उत्कृष्ट पीत और जघन्य पद्म लेश्या है इसप्रकार एक ही स्वर्ग में दो लेश्या होना रूप अर्थ सूत्र से स्पष्ट नहीं होता किन्तु व्याख्यान विशेष से उक्त अर्थ करना चाहिये, क्योंकि आगमान्तर में वैसा उल्लेख है । शंका-जैसा लेश्या का संबंध आपने बतलाया वैसा घटित नहीं होता, क्योंकि सूत्र में "द्वित्रिशेषेष" पाठ है। सूत्र में तो ऐसा पढ़ा जायेगा कि दो में पीत लेश्या है तथा तीनों में पद्म लेश्या है और शेषों में शुक्ल लेश्या है । किन्तु वह अर्थ भी आगम से विरुद्ध पड़ता है ? समाधान-यह कथन अयुक्त है, इच्छा से सम्बन्ध किया जाता है। देखिये ! दो कल्प युगलों में पीत लेश्या वाले देव हैं, सानत्कुमार माहेन्द्र में पद्म लेश्या की अविवक्षा है। ब्रह्मलोक आदि तीन कल्प युगलों में पद्म लेश्या है। शुक्र महाशुक्र में शुक्ल लेश्या की अविवक्षा है। शेष शतार आदि में शुक्ल लेश्या है वहां पद्म लेश्या की अविवक्षा समझना, इसप्रकार व्याख्यान करने से अर्थ में विरोध नहीं आता। कहा भी है-सौधर्म ऐशान में पीत लेश्या है, आगे दो में पीत पद्म लेश्या है, उससे आगे छह कल्पों में पद्म लेश्या है, फिर उसके आगे दो में पद्म और शुक्ल लेश्या है । आनतादि तेरह स्थानों में [ आनत प्राणत आरण अच्युत और नौ ग्रैवेयक ] मध्यम शुक्ल लेश्या होती है तथा नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर इन चौदह में उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या होती है ॥ १ ॥ २ ॥
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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