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________________ २२८ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती दृश्यते तद्वदत्रापीत्यदोषः । पाणिनीयमिदं सूत्रमिदानी चान्द्रीयमुच्यते-धृतावलिविता मध्यमाः । धृतादयः शब्दा उत्तरपदे परतः पुंवद्भावमापद्यन्त इति । द्वौ च त्रयश्च शेषाश्च द्वित्रिशेषाः । तेषु द्वित्रिशेषेषु । तत्र सौधर्मेशानीया देवा मध्यमपीतलेश्याः । सानत्कुमारमाहेन्द्रीयाः प्रकृष्टपीतजघन्यपद्मलेश्याः । ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठेषु मध्यमपद्मलेश्याः । शुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेषु प्रकृष्टपद्म जघन्यशुक्ललेश्याः। आनतादिषु शेषेषु मध्यमशुक्ललेश्याः। तत्राप्यनुदिशानुत्तरेषु परमशुक्ललेश्या देवाः प्रत्येतव्याः । अत्र कश्चिदाह-शुद्धो मिश्रश्चोक्तोऽयं लेश्याविकल्पो नोपपद्यते सूत्रे मिश्रग्रहणाभावादिति । तदयुक्त-शुद्धमिश्रयोरन्यतरग्रहणात् । यथा लोके छत्रिणो गच्छन्तीत्यच्छत्रिष्वपि च्छत्रिव्यपदेशस्तथा पोतपद्मलेश्या देवाः पूर्वग्रहणेन परग्रहणेन वा गृह्यन्ते । एवं पद्मशुक्ललेश्या देखने में आता है, उसीप्रकार यहां पीता च पद्मा च इत्यादि में पीत और पद्म पद ह्रस्व हो गये हैं। उक्त सूत्र पाणिनि व्याकरण का है । चन्द्र व्याकरण का धृतावलिविता मध्यमाः । धृतादयः शब्दाः उत्तर पदे परतः पुंवद्भावमापद्यन्ते" इसप्रकार का सूत्र है। द्वि आदि पदों में द्वन्द्व समास है । अब इसका स्पष्टीकरण करते हैं-सौधर्म ऐशान स्वर्ग के देव मध्यम पीत लेश्या वाले होते हैं । सानत्कुमार माहेन्द्र में प्रकृष्ट पीत और जघन्य पद्म लेश्या है । ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ में मध्यम पद्म लेश्या है । शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार में उत्कृष्ट पद्म और जघन्य शुक्ल लेश्या होती है । आनतादि शेष में मध्यम शुक्ल लेश्या है, उनमें भी जो अनुदिश और अनुत्तर वाले देव हैं उनके परम शुक्ल लेश्या जाननी चाहिये । शंका-आपने यहां पर कहीं शुद्ध पीत आदि लेश्या कही है और कहीं कहीं पीत पद्म आदि के मिश्ररूप लेश्या बतायी है किन्तु इसतरह का लेश्या विकल्प बनता नहीं, क्योंकि सूत्र में मिश्र शब्द का ग्रहण नहीं है ? समाधान—यह कथन ठीक नहीं है । शुद्ध और मिश्र में से एक का ग्रहण करने से दूसरे का ग्रहण स्वतः हो जाता है, जैसे लोक में प्रयोग देखा जाता है कि "छत्रिणो गच्छन्ति" छत्री वाले जा रहे हैं, इस वाक्य में अछत्री वाले को भी छत्री वाले कह देते हैं अर्थात् बहुत से छत्री वालों में कुछ व्यक्ति छत्री रहित भी होते हैं और उनका ग्रहण छत्री वालों के साथ हो ही जाता है । ठीक इसीप्रकार पीत पद्म लेश्या युक्त देव भी पूर्व या पर ग्रहण से ग्रहण में आ जाते हैं, इसीप्रकार पद्म और शुक्ल लेश्या वाले
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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