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चतुर्थोऽध्यायः
[२२३ चरित इन्द्रोप्याच्युतः । अथवा स्वभावादच्युतः कल्पः । तत्साहचर्यादिन्द्रोप्यच्युतः । लोकपुरुषस्य ग्रीवास्थानीयत्वाद्ग्रीवाः । ग्रीवासु भवानि अवेयकान्युपर्यु पर्येकैकवृत्त्या व्यवस्थितानि विमानानि सुदर्शनाऽमोघसुबुद्धपयोधरसुभद्रसुविशालसुमनः सौमनसप्रियङ्कराख्यानि नव भवन्ति । तत्साहचर्यादिन्द्रा अपि ग्रैवेयका उच्यन्ते । समासेनैकविभक्तिनिर्देशात्सिद्धे नवसु अवेयकेष्विति नवशब्दस्य पृथंग्वचनमागप्रसिद्धाऽनुदिशाख्याऽपरनवविमानास्तित्वसंसूचनार्थम् । ततो लक्ष्मी लक्ष्मीमालिक वैरेवक, रोचनक, सोम, सोमरूप्याङ्क, पल्यङ्कादित्याख्यानि मध्यभूतादित्येन्द्रविमानस्याष्टदिगानुगत्येन भवनादन्वर्थानि नवानुदिशविमानान्यत्र व्याख्यायन्ते । तत्साहचर्यादिन्द्रा अप्यनुदिशाख्याः प्रोच्यन्ते । अभ्युदयविघ्नहेतुविजयात्सर्वार्थानां सिद्धेश्चान्वर्थसंज्ञानि विजयादीनि पञ्च विमानानि । तत्साहचर्यादिन्द्रा अपि विजयादिनामानो वेदितव्याः । समासमकृत्वा सर्वार्थसिद्धस्य पृथग्वचनं स्थित्यादिविशेष प्रतिपत्त्यर्थं कृतम् । अत एव तस्य प्राधान्यान्मध्येऽवस्थानमितरेषां गौणत्वाच्चतसृषु दिक्षु वेदितव्यम् ।
कल्प है और उसके साहचर्य से इन्द्र भी अच्युत है । लोकाकाश रूप पुरुष के ग्रीवा स्थानीय होने से ग्रीवा है और ग्रीवा में जो होवे वे ग्रैवेयक कहलाते हैं, ये नौ हैं ऊपर ऊपर व्यवस्थित हैं उनके नाम सुदर्शन, अमोघ, सुबुद्ध, पयोधर, सुभद्र, सुविशाल, सुमन, सौमनस और प्रियंकर हैं। इनके साहचर्य से इन्द्रों को भी [ अहमिन्द्र ] ग्रैवेयक कहते हैं। समास करके एक विभक्ति का निर्देश करके भी ग्रैवेयकों की सिद्धि संभव है किन्तु "नवसु ग्रैवेयकेषु" ऐसे निर्देश में नव शब्द का पृथक् कथन आगम में प्रसिद्ध अनुदिश नामके नव विमानों के अस्तित्व को बतलाने के लिये किया है । उससे लक्ष्मी, लक्ष्मी मालिक, वैरवक, रोचनक, सोम, सोमरूप्य, अंक और पल्यंक नाम के आठ विमान आठ दिशा संबंधी हैं जो मध्य के आदित्य नाम के इन्द्रक विमान के अनुगामी हैं, आठ दिशा के अनुसार होने से अनुदिश ऐसे सार्थक नामवाले हैं इनका कथन यहां "नवसु" पद से हो जाता है । इन विमानों के साहचर्य से इन्द्र [ अहमिन्द्र ] भी अनुदिश नाम से कहे जाते हैं । अभ्युदय में विघ्न करने वाले हेतु पर विजय प्राप्त करने वाले होने से तथा सभी अर्थों की सिद्धि करने वाले होने से अन्वर्थ नाम वाले ये पांच विजयादिक विमान हैं। उनके साहचर्य से इन्द्र भी [ अहमिन्द्र ] विजय आदि नाम वाले जानने चाहिये। "सर्वार्थ सिद्धौ” इस पद का समास नहीं करके पृथक् पद रखा है वह स्थिति आदि की विशेषता को बतलाने के लिये रखा है, इसीलिये यह विमान प्रधान तथा मध्य में स्थित है एवं इतर विमान गौण तथा चार दिशाओं में स्थित हैं यह सिद्ध होता है।