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________________ चतुर्थोऽध्यायः [ २१७ मेरोः प्रदक्षिणाः सव्या मेरुप्रदक्षिणा इत्येतद्विशेषणं विपरीतगतिनिराकरणार्थम् । नित्यमभीक्ष्णं गतिर्गमनं येषां ते नित्यगतयः । इदं तु विशेषणमनुपरतगतिक्रियाप्रतिपादनार्थम् । नणां मनुष्याणां लोकः क्षेत्रं नृलोकस्तस्मिन्नृलोके । एतस्योपादानमर्धतृतीयद्वीपसमुद्रप्रमाणक्षेत्रविषयत्वप्रतिपादनार्थम् । तत एकादशभिर्योजनशतैरेकविंशरुमप्राप्यतस्य प्रदक्षिणा ज्योतिष्का नृलोकेऽनुपरतगतयः स्वभावात्प्रत्येतव्यास्तादृशकर्मविशेषवशीकृतैः सदा गतिरताभियोग्यदेवैः प्रर्यमाणविमानत्वाच्च । न पुनरन्यथा तेऽवबोद्धव्यास्तादृशनिमित्तान्तराभावात् । भरतैरावतयोः कीलकवद्ध वास्तत्प्रादक्षि मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं यह विशेषण विपरीत गति का निराकरण करने के लिये है । नित्य अर्थात् अभीक्ष्ण सतत जिनका गमन होता है वे "नित्यगतयः" कहलाते हैं । यह विशेषण बिना रुकावट के संतत गमन क्रिया का प्रतिपादन करने के लिये दिया गया है । मनुष्यों के लोक में अर्थात् मनुष्य क्षेत्र में, अढ़ाई द्वीप और दो समुद्र प्रमाण क्षेत्र को बतलाने के लिये यह पद रखा है । मेरु से ग्यारह सौ इक्कीस योजन दूर रहकर उसकी प्रदक्षिणा ज्योतिष्क करते हैं, यह गमन बिना रुकावट के स्वभाव से होता रहता है, ऐसा जानना चाहिये, तथा उस प्रकार के विचित्र कर्मों के उदय के वशीभूत हुए गति क्रिया में रत आभियोग्य जाति के देवों द्वारा वे विमान प्रर्यमाण हैं-उक्त देवों द्वारा उन सूर्यादि के विमानों का वहन किया जाता है, अतः ज्योतिष्क विमान सतत गतिशील हैं। ये सूर्यादिक अन्य प्रकार से गमन नहीं करते ऐसा निश्चय करना चाहिये, क्योंकि उस प्रकार का कोई निमित्त कारण नहीं है कि जिस कारण वे किसी दूसरे प्रकार से गतिशील होवें। भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में कोई ज्योतिष्क कील के समान ध्रव हैं और कोई ज्योतिष्क उनकी प्रदक्षिणा रूप से भ्रमण करते हैं ऐसा आगमान्तर में कथन पाया जाता है । सो इस विषय में जिनेन्द्र द्वारा जैसा दृष्ट-देखा गया है वैसा श्रद्धान छद्मस्थों को करना चाहिये । अब यहां अधिक नहीं कहते हैं। विशेषार्थ-यहां पर टीकाकार ने भरत और ऐरावत क्षेत्रों में कील के समान ध्र व ज्योतिष्कों का उल्लेख किया है तथा इन ध्र व ज्योतिष्कों की प्रदक्षिणा करने वाले अन्य भ्रमणशील ज्योतिष्कों का भी उल्लेख किया है। कोई आगमान्तर में इस तरह का कथन है ऐसा इनका कहना है, यह एक विशेष बात है। त्रिलोकसार आदि ग्रंथों में ध्रुव ताराओं का कथन तो पाया जाता है ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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