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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती
ण्येन भ्रमरणशीलाश्च केचिज्जयोतिष्क विशेषाः सन्तीत्यादि चागमान्तरे निवेदितं जिनदृष्टभावेनच्छद्मस्थैः श्रद्धातव्यमित्यलमिहातिविस्तरेण । गतिमज्जयोतिष्कसम्बन्धेन सांव्यवहारिककालं प्रतिपादयन्नाह—
तत्कृतः कालविभाग: ।। १४ । ।
तैर्गतिमज्जयोतिभिः कृतः प्रादुर्भावितस्तत्कृत: कालस्य विभागो भेदः कालविभागः । किमुक्तं भवति ? व्यवहारकालः समयावलिकादिसंज्ञिकः क्रियाविशेष परिच्छिन्नोऽन्यस्यौदनपाकवाहदोहादेरपरिच्छन्नस्य परिच्छेदहेतुर्गतिपरिणतज्योतिभिः परिच्छिद्यते न केवलया गत्या नापि केवलैज्यों
जैसे - छक्कदि णव तीस सयं दसप सहस्सं खवार इगिदालं । गवण तिदु गतेवणं थिरतारा पुक्खर दलोत्ति ॥ ३४७।।
अर्थ - पुष्करार्ध पर्यन्त ध्रुव तारे क्रम से छत्तीस, एक सौ उन्तालीस, एक हजार दस, इकतालीस हजार एक सौ बीस, और त्रेपन हजार दो सौ तीस हैं । अर्थात् जंबूद्वीप में स्थिर तारे ३६ हैं । लवण समुद्र में १३९ । धातकी खण्ड में १०१० । कालोदक में ४११२० । और पुष्करार्ध में ५३२३० ध्रुव तारे हैं । किन्तु यहां केवल भरत ऐरावत में ही कील के समान ताराओं का उल्लेख है । सबसे अधिक विशिष्ट बात यह है कि उन कीलवत् ज्योतिष्कों की अन्य ज्योतिष्क प्रदक्षिणा देते हैं ऐसा कहा है । वह आगमान्तर कौनसा है इसका अन्वेषण आवश्यक है ।
गतिशील ज्योतिष्क के संबंध से सांव्यावहारिक काल संपन्न होता है ऐसा प्रतिपादन करते हैं—
सूत्रार्थ - उक्त ज्योतिष्क के परिभ्रमण से काल का विभाग होता है ।
उन गतिमान ज्योतिष्क द्वारा काल भेद प्रगट किया जाता है । अर्थ यह है कि समय आवली इत्यादि व्यवहार काल क्रिया विशेष द्वारा जाना जाता है । चावल का पकना, वाह क्रिया [ बोझा ढोना ] गाय का दुहना इत्यादि अपरिच्छिन्न क्रियाओं के परिच्छेद का हेतु उक्त आवली आदि व्यवहार काल है । यह काल गति में परिणत ज्योतिष्क द्वारा मापा जाता है, केवल गति के द्वारा या केवल ज्योतिष्क द्वारा नहीं ।