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चतुर्थोऽध्यायः
[ २१५ भूताश्च पिशाचाश्चेतीतरेतरयोगे द्वन्द्वः । तत्रास्माज्जम्बूद्वीपादससंघयेयद्वीपसमुद्रानतीत्योपरिष्ठे खरपृथ्वीभागे सप्तानां व्यन्तराणामावासाः सन्ति । तृतीयनिकाये किं संज्ञाः पञ्चविधा देवा ? इत्याह
ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ॥ १२ ॥ ज्योतिर्दीप्तिरित्यर्थः । ज्योतिर्विद्यते येषां ते ज्योतिष्का ज्योतिषायुक्तत्वाज्ज्योतिष्का इति च नामकर्मसामान्योदयनिमित्तान्वर्था पञ्चानामपि सामान्यसंज्ञेयं रूढा। सूर्यादयस्तु विशेषसंज्ञास्तन्नाम कर्मविशेषोदयहेतुकाः प्रसिद्धाः । सूर्यश्च चन्द्रमाश्च सूर्याचन्द्रमसौ । तयोः पृथग्वचनं प्रभावादिविशेषतः प्राधान्यख्यापनार्थम् । ग्रहाश्च नक्षत्राणि च प्रकीर्णकतारकाश्च ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारका । चशब्दो
का एक हजार योजन और नीचे का एक हजार योजन छोड़कर शेष भाग में किन्नर आदि सात प्रकार के व्यन्तरों के निवास हैं और राक्षसों के निवास पंक भाग में हैं। इसीप्रकार भवनवासियों के जो असुरकुमार जाति है उसका पंक भाग में निवास है शेष नौ कुमारों का पहले खर भाग में निवास है। ये सर्व निवास स्थल मध्यलोक के नीचे उस सीध में हैं जहां जंबुद्वीप आदि असंख्यात द्वीप सागरों का भाग उल्लंघन हो जाता है, अर्थात् ये निवास स्थल जंबूद्वीप आदि के नीचे नहीं हैं किन्तु उससे असंख्यात द्वीप सागर जाने के बाद नीचे के भाग में हैं ।
तीसरे निकाय में पांच प्रकार के देवों के नाम कौनसे हैं सो बताते हैंसूत्रार्थ-सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे ये ज्योतिष्क देवों के भेद हैं ।
ज्योति दीप्ति को कहते हैं । ज्योति जिनके विद्यमान है वे ज्योतिष्क हैं। ज्योतिष्क नाम कर्म सामान्य के उदय से इन पांच प्रकार के देवों की ज्योतिष्क यह सामान्य संज्ञा है, और सूर्य चंद्र आदि विशेष सज्ञा उस उस विशेष नाम कर्म के उदय से होती है । "सूर्याचन्द्रमसौ" यह पृथक् योग इनका प्रभावादि विशेषता से प्राधान्य दिखलाने के लिये किया गया है । ग्रह आदि पदों में द्वन्द्व समास है । च शब्द अनुक्त का समुच्चय करने के लिये है।
अब इन ज्योतिष्कों का निवास बतलाते हैं
इस समतल भूभाग से ऊपर सात सौ नब्बे योजन जाकर सर्व ज्योतिष्कों में अधोभावी तारे चलते हैं, उससे दस योजन ऊपर जाकर सूर्य चलते हैं। उससे अस्सी योजन