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________________ २१४ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती कुमाराः स्तनितकुमारा उदधिकुमारा द्वीपकुमारा दिक्कुमारा इति । तत्र रत्नप्रभायाः पङ्कबहुलभागे ऽसुरकुमाराणां भवनानि । शेषाणां नवानां खरपृथ्वीभागेषूपर्यधश्चैकैकं योजनसहस्र वर्जयित्वा शेषे चतुर्दशयोजनसहस्रसङ्ख्य भवनानि सन्ति । नोपर्यधश्चेति व्याख्येयम् । द्वितीयनिकाये कि संज्ञा अष्टविधा देवा ? इत्याह व्यन्तराः किन्नरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ॥ ११ ॥ . विविधानि देशान्तराणि त्रिकचत्वारादीनि निवासा येषां ते व्यन्तरा इति तन्नामकर्मसामान्योदयापेक्षा किन्नरादीनामष्टानामप्यन्वर्था सामान्यसंज्ञेय बोद्धव्या। किन्नरादयश्च विशेषसंज्ञास्तन्नामकर्मविशेषोदयनिमित्ता रूढाः। किन्नराश्च किंपुरुषाश्च महोरगाश्च गन्धर्वाश्च यक्षाश्च राक्षसाश्च वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार । उनमें रत्नप्रभा भूमि के पंकबहुल भाग में असुरकुमारों के भवन हैं । शेष नागकुमार आदि नौ कुमारों के भवन खर पृथिवी के ऊपर नीचे के एक एक हजार योजन के भाग को छोड़कर शेष चौदह हजार योजन प्रमाण भाग में हैं, ऐसा समझना चाहिये । द्वितीय निकाय के आठ प्रकार के देव किन नाम वाले हैं सो बताते हैं सूत्रार्थ-किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ये व्यन्तर जाति के देवों के आठ भेदों के नाम हैं । विविध देशान्तरों में तिराहा, चौराहा आदि में जिनके निवास हैं वे व्यन्तर कहलाते हैं, उस नाम कर्म सामान्य के उदय की अपेक्षा से किन्नरादि आठों देव जातियों की व्यन्तर यह सामान्य संज्ञा है । और किन्नर, किंपुरुष आदि जो विशेष संज्ञायें हैं वे उस उस नाम कर्म विशेष के उदय की अपेक्षा लेकर रूढ हैं । किन्नर आदि पदों में इतरेतर द्वन्द्व समास है। इस जम्बूद्वीप से असंख्यात द्वीप सागरों का उल्लंघन करके नीचे की ओर जो खर पृथिवी का भाग है, उस खर भाग पृथिवी के उपरिम भाग में राक्षस जाति के व्यन्तरों को छोड़कर शेष सात प्रकार के व्यन्तर देवों के आवास हैं [ तथा राक्षसों के आवास पंक बहुल भाग में हैं।] भावार्थ-मध्यलोक में जंबूद्वीप आदि असंख्यात द्वीप समुद्र हैं ये सर्व ही चित्रा पृथिवी पर अवस्थित हैं, चित्रा पृथिवी के नीचे से अधोलोक प्रारंभ होता है रत्नप्रभा नाम की अधोलोक की जो पहली पृथिवी है उसके तीन भाग हैं-खर भाग, पंक भाग और अब्बहुल भाग । इनमें खर भाग सोलह हजार महा योजन मोटा है, उसके ऊपर
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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