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७. मध्यमपद से अंगप्रविष्ट की रचना और प्रमाण पद से अंग बाह्य की रचना
होती है [अ. १ सू. २०]
८. रत्नप्रभा आदि सातों नरक भोगभूमियों के मनुष्यों की आयुष्क को हीनाधिक
मानना अर्थात् अढाई द्वीप सम्बन्धी पांच हैमवत और पांच हैरण्यवत जघन्य भोगभूमिजों की जघन्य आयु पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण और उत्कृष्ट आयु एक पल्य प्रमाण मानते हैं । पांच हरिवर्ष और पांच रम्यक मध्यम भोगभूमिजों की आय जघन्य एक पल्य और उत्कृष्ट दो पल्य । पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु उत्कृष्ट भोगभूमिजों की जघन्य आयु दो पल्य और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य प्रमाण मानी है-'तत्रत्याजना उत्कर्षेणैक पल्योपमायुषो जघन्येन पूर्व कोट्यायुषो
........ इत्यादि [अ. ३ सू. २६] ६. विदेह के मनुष्यों की ऊंचाई सवा पांचसौ धनुष प्रमाण मानी है
'मनुष्याश्च पंचविंशत्यधिक पंच धनुः शतोत्सेधाः' [ अ. ३ सू. ३१ ] १०. अन्तर्वीपजम्लेच्छ-कुभोगभूमिज मनुष्य मरकर चारों गतियों में जाते हैं.....'कर्मभूमिवत् मनुष्याणां चातुर्गतिकत्वमिति विशेषोऽत्र दृष्टव्यः'
__[ अ. ३ सू. ३७ ] ११. छठे काल के प्रारम्भ में मनुष्य की ऊंचाई दो हाथ छह अंगुल है अन्यत्र २ हाथ
मात्र कहा है । [अ. ३ सू. २७] १२. लब्धि से होने वाले तैजस शरीर को दो प्रकार का माना है-निःसरणात्मक
और अनिःसरणात्मक-'तत्र यदनुग्रहोपघातनिमित्त निःसरणाऽनिःसरणात्मकं
तपोतिशयद्धि सम्पन्नस्य यते भवति तद् विशिष्टरूप कथितम्' [अ. २ सू. ४८] १३. भरत और ऐरावत में कील के समान ध्रुव ज्योतिष्क विमान हैं और उन ध्र व
ज्योतिष्कों की भ्रमणशील ज्योतिष्क प्रदक्षिणा देते हैं'भरतैरावतयोः कीलकवत् ध्र वास्तत् प्रादक्षिण्येन भ्रमणशीलाश्च केचित् ज्योतिष्क विशेषाः सन्तीत्यादि चागमान्तरे निवेदितम्' [अ. ४ सू. १३]